इंदौर (मप्र)। हमें व्यक्तिगत लाभों से उठकर सृजन का ऐसा मार्ग बनाना चाहिए, जो भारतीय संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा कर सके। जब तक हम बौद्धिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होंगे, तब तक आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना साकार नहीं हो सकती।
रविवार को हिंदी साहित्य भारती मध्यप्रदेश द्वारा संत रविदास की जयंती पर ‘साहित्य में समरसता’ विषय पर विमर्श के साथ आयोजित प्रादेशिक सम्मेलन में यह बात प्रथम संगठनात्मक सत्र में हिंदी साहित्य भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उप्र के पूर्व शिक्षा मंत्री डॉ. रवींद्र शुक्ल ने कही। श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के सभागार में यह पूरा आयोजन 3 सत्रों में आयोजित किया गया। संगठन महामंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ मध्यप्रदेश की अध्यक्ष डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव, संगठन महामंत्री गोपाल माहेश्वरी तथा तीनों प्रांत (महाकौशल, मालवा और मध्य भारत) के अध्यक्ष तथा बड़ी संख्या में प्रतिनिधि और साहित्यप्रेमी उपस्थित रहे। डॉ. शुक्ल को सभी प्रांताध्यक्षों ने अपनी आगामी योजना से अवगत कराया। अध्यक्ष ने मार्च तक सभी जिलों में इकाईयों का गठन करने तथा जून तक प्रांत सम्मेलन आयोजित करने के निर्देश दिए।
समरसता विमर्श का यह आयोजन साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश और हिंदी साहित्य भारती का संयुक्त आयोजन था, जो संत रविदास और समरसता पर केंद्रित था। सत्र को प्रारंभ करते हुए कार्यक्रम संयोजक डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव ने विषय प्रवर्तन किया। आपने कहा कि समरसता जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है। आज विचारणीय बिंदु यह है कि हम कैसे समाज को संस्कार रूप में समरसता दे सकते हैं ?
अतिथि परिचय डॉ. गीता दुबे, विजय सिंह चौहान तथा मधुलिका सक्सेना ने दिया। डॉ. कला जोशी, रश्मि बजाज और रजनी झा ने कार्यक्रम का सुंदर संचालन किया। स्वागत संयुक्त महामंत्री अजय जैन ‘विकल्प’ ने किया। संगठन महामंत्री गोपाल माहेश्वरी ने आभार माना।
धमनियों में बहता हुआ रक्त है समरसता-डॉ. दवे
अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे ने कहा कि समरसता भारतीय संस्कृति की धमनियों में बहता हुआ रक्त है। आधुनिक युग में समरसता को जातिय समरसता तक सीमित कर दिया गया है। सारे पंथ के लोग भारत की मिट्टी को एक मानने लगें, यही समरसता है और यही भाव समृद्ध भारत के विकास का मार्ग है। इसी विषय पर मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष डॉ. राजेश लाल मेहरा ने कहा कि भारत का अर्थ ही है समरस भारत। लोक साहित्य सभी शास्त्रों को जीवन में उतारने का कार्य करता है। जो साहित्य समरसता ना ला पाए, वह साहित्य नहीं है। आम्बेडकर विश्वविद्यालय (लखनऊ) के कुलाधिपति डॉ. प्रकाश बरतूनिया ने कहा कि, समरसता हमारे संस्कार में है, उसे आचरण में डालने की आवश्यकता है। गुरुग्रंथ साहिब सामाजिक समरसता का एक बहुत बड़ा ग्रंथ है, जिसमें सभी संतों की समरस वाणी संकलित है।
इस अवसर पर डॉ. धर्मेंद्र सरल शर्मा ने श्रीकृष्ण सरल के साहित्य में समरसता से सदन को परिचित कराया।
डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला ने कहा कि जो सबको साथ में रखकर चले, सबके साथ में रहे, वही साहित्य है। वही जी पाएंगे, जो समरसता के भाव को अंगीकार करेंगे।
अंतिम सत्र में हुआ सम्मान