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“यज्ञ” आध्यात्मिक के साथ है वैज्ञानिक महत्त्व

Written by Vaarta Desk
यज्ञ’ शब्द यज-धातु से सिद्ध होता है जिसका अर्थ है देव पूजा, संगतिकरण और दान। संसार के सभी श्रेष्ठकर्म यज्ञ कहे जाते हैं। यज्ञ को अग्निहोत्र, देवयज्ञ, होम, हवन, अध्वर भी कहते हैं। यज्ञ की महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि  दयानंद कहते हैं : ‘‘सब लोग जानते हैं कि दुर्गंधयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुख और सुगंधित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है। जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगंध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गंध का भी। इतने से ही समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होकर फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गंध की निवृत्ति करता है। अग्निहोत्र से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि होकर, औषधियां शुद्ध होती हैं। शुद्ध वायु का श्वास स्पर्श, खान-पान से आरोग्य, बुद्धि, बल पराक्रम बढ़ता है। इसे ‘देवयज्ञ’ भी कहते हैं क्योंकि यह वायु आदि पदार्थों को दिव्य कर देता है।’
परोपकार की सर्वोत्तम विधि हमें यज्ञ से सीखनी चाहिए। जो हवन सामग्री की आहूति दी जाती है, उसकी सुगंधि वायु द्वारा अनेक प्राणियों तक पहुंचती है। वे उसकी सुगंध से आनंद अनुभव करते हैं। यज्ञ कर्ता भी अपने सत्कर्म से सुख अनुभव करता है। सुगंधि प्राप्त करने वाले व्यक्ति याज्ञिक को नहीं जानते और न ही याज्ञिक उन्हें जानता है। फिर भी परोपकार हो रहा है वह भी निष्काम।
यज्ञ में चार प्रकार के हव्य पदार्थ डाले जाते हैं। सुगंधित-केसर, अगर, तगर, गुग्गल, कपूर, चंदन, इलायची, लौंग, जायफल, जावित्री आदि।
पुष्टिकारक-घृत, दूध, फल, कंद, मखाने, अन्न, चावल जौ, गेहूं, उड़द आदि।
मिष्ट-शक्कर, शहद, छुहारा, किशमिश, दाख आदि।
रोगनाशक-गिलोय, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, मुलहठी, सोंठ, तुलसी आदि औषधियां अर्थात जड़ी-बूटियां जो हवन सामग्री में डाली जाती हैं।
यज्ञ से रोगाणुओं अर्थात कृमियों का नाश हो जाता है। ये रोगजनक कृमि पर्वतों, वनों, औषधियों, पशुओं और जल में रहते हैं जो हमारे शरीर में अन्न और जल के साथ जाते हैं।
मलमूत्र के विसर्जन, पदार्थों के गलने-सडऩे, श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया, धूम्रपान, कल-कारखानों, वाहनों, भट्ठों से निकलने वाला धुआं, संयंत्रों के प्रदूषित जल, रसायन तत्व एवं अपशिष्ट पदार्थों आदि से फैलने वाले प्रदूषण के लिए मानव स्वयं ही उत्तरदायी है। अत: उसका निवारण करना भी उसी का कर्तव्य है।
वस्तुत: पर्यावरण को शुद्ध बनाने का एकमात्र उपाय यज्ञ है। यज्ञ प्रकृति के निकट रहने का साधन है। रोग-नाशक औषधियों से किया यज्ञ रोग निवारण वातावरण को प्रदूषण से मुक्त करके स्वस्थ रहने में सहायक होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी परीक्षण करके यज्ञ द्वारा वायु की शुद्धि होकर रोग निवारण की इस वैदिक मान्यता को स्वीकार किया है।
प्राय: लोगों का विचार है कि यज्ञ में डाले गए घृत आदि पदार्थ व्यर्थ ही चले जाते हैं परंतु उनका यह विचार ठीक नहीं है। विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार कोई भी पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता अपितु उसका रूप बदलता है। यथा बर्फ का पिघल कर जल रूप में बदलना, जल का वाष्प रूप में बदल कर उड़ जाना। रूप बदलने का अर्थ नष्ट होना नहीं बल्कि अवस्था परिवर्तन है। बस यही सिद्धांत यज्ञ पर भी चरितार्थ होता है। यज्ञ में डाले गए पदार्थ सूक्ष्म होकर आकाश में पहुंच जाते हैं। यज्ञ में पौष्टिक, सुगंधित और रोगनाशक औषधियों की हवन सामग्री से दी गई आहुतियों से पर्यावरण की शुद्धि होती है। सभी पदार्थ सूक्ष्म होकर पृथ्वी, आकाश, अंतरिक्ष में जाकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। इससे मनुष्य, अन्य  जीव-जंतु एवं वनस्पतियां सभी प्रभावित होते हैं।
यज्ञ से शुद्ध हुई जलवायु से उत्पन्न औषधि, अन्न और वनस्पतियां आदि भी शुद्ध एवं निर्दोष होते हैं। वायु, जल आदि जो देव हैं वे यज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं, आकाश मंडल निर्मल और प्रदूषणमुक्त हो जाता है। यही उन देवताओं का सत्कार और पूजा है। अग्रि में समर्पित पदार्थ आकाश मंडल में पहुंच कर मेघ बनकर वर्षा में सहायक होते हैं। वर्षा से अन्न और अन्न से प्रजा की तुष्टि-पुष्टि होती है। इस प्रकार जो अग्निहोत्र करता है वह मानो प्रजा का पालन करता है। परमात्मा ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है परंतु क्या मनुष्य ने भी परमात्मा को यज्ञ के द्वारा कुछ दिया है? परमात्मा स्वयं वेद में कहता है :
देहि में द दामि ते।।
तुम मुझे दो, मैं तुम्हें देता हूं।।
आचार्य आशीष शांडिल्य
श्रीधाम अयोध्या

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