बचपन में,पारिवारिक तौर पर चित्रगुप्त पूजा की याद करूं,तो प्रारंभिक दो-तीन साल हमलोगोंने बिना पोथी के ही पूजा की थी।पूजा करने की विधि समझाने का चाचाका अंदाज निराला था।वह समझाते-देखो,पूजा कोई भी हो,सबसे पहले-श्री गणेशाय नमः-यानि कि गणेशजी की पूजा होगी।अब,मान लो-गणेशजीकी पूजा करनी है,तो उनको बुलाना होगा,आमंत्रित करना होगा, उनका आह्वान करना होगा।अब आह्वान करने पर वह आ गए,तो पारम्परिक संस्कार क्या कहता है?-पहले उनके पैर पखारो,उनके हाथ-पैर धुलवाओ,उनको आसन दो,उनको धारण करनेके लिए धवल वस्त्र दो, उनको रोली-चन्दनका टीका लगाओ,उनका मुंह मीठा कराओ,उनसे ऐसा व्यवहार करो,जिससे वह रूष्ट न हों और तुम्हारे संकल्पमें कोई बाधा न आए।पूजा जिसकी भी करनी हो,लेकिन कुल देवता,ग्राम देवताका भी आह्वान करो,नवग्रहोंकी शांतिके लिए भी यही प्रक्रिया अपनाई जाए।तब जिसका पूजा करना हो,उनके साथ भी यही प्रक्रिया अपनाओ।इस सारी प्रक्रियामें आचमन, अक्षत,रोली,चन्दन,अगरबत्ती,मिठाई,फलकी भूमिका प्रतीकात्मक मात्र है।
दो-तीन सालके बाद मालूम हुआ कि पापाकी लाइब्रेरी में पोथियोंका एक बंडल भी है,जिसमें चित्रगुप्त भगवानकी भी पोथी है।1992में मैंने भी चित्रगुप्त भगवानकी फोटो और पोथी खरीद ली।बैंकमें छुट्टी रहती नहीं थी,सो पूजा करनेके बाद बैंक जाता।1997 से बेटू भी साथ पूजा करने लगा और 1998से छोटू भी।बच्चोंको मैंने चाचाके अंदाजमें पूजा प्रक्रिया समझाने की कोशिश की,लेकिन मैं प्रभावशाली प्रशिक्षक साबित नहीं हो पाया क्योंकि उनके दिलो- दिमागमें उस शैलीका प्रभाव नहीं है।
मुझे यह परम्परा कुछ पचती नहीं थी कि चित्रगुप्त पूजामें घरकी महिलाएं-लड़कियां शामिल नहीं होती।लेकिन,कभी इतना क्रांतिकारी नहीं हो पाया कि महिलाओं-लड़कियों या विजातीय मसीजीवियोंको चित्रगुप्त पूजामें शामिल कर पाऊं।मेरे लिए चित्रगुप्त पूजा आस्था कम और परम्पराका निर्वाह ज्यादा है।
2020में पटना रहा तो एक दिन पहले ही गप्पूसे कहा-दीवान महल्ला वाले चित्रगुप्त मंदिर पर्यटन भावसे जाता रहा हूं,लेकिन चित्रगुप्त पूजाके दिन कभी नहीं गया।चला जाए क्या,चित्रगुप्त पूजाके दिन चित्रगुप्त मंदिर।गप्पूके पास समयाभाव है,उसने हाथ खड़ेकर दिए।कन्हैया भैया तैयार मिले लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि घरसे चित्रगुप्तमंदिर और चित्रगुप्तमंदिरसे घर करना होगा।…आपके साथ,और आपके स्पिरिटसे घूमनेकी न तो हिम्मत है और न समय-कन्हैया भैयाकी निष्कर्षात्मक शर्त थी।मेरे जैसे आदमीके पास शर्त माननेके अलावा कोई विकल्प नहीं था,क्योंकि मुझे कार चलानी आती नहीं,और कोरोना कालमें ऑटो-टेम्पू -टैक्सी निरापद नहीं है।कन्हैया भैयाकी कारसे सिर्फ हम दो जनें निकले।जामके कारण अशोक राजपथ पर गांधी मैदानसे पटनासिटी चौक तक जानेका साहस नहीं हुआ।सो पुरानी बाईपास रोड होते हुए गायघाटके नजदीक अशोक राजपथको पकड़ा।बमुश्किल एक डेढ़ किलोमीटर बढ़ने पर वह मोड़ मिला,जहां दाहिनी तरफ पटनासिटी जेल है और बांयी ओर दीवान मुहल्लाकी गली।दीवान मुहल्लाकी गली पार करते हुए हमलोग चित्रगुप्त मंदिर पहुंचे।नए रूपमें चित्रगुप्त मंदिर देखकर मिजाज गदगद हो गया।मंदिरके अहातेके पास मैरीन ड्राइवकी तरह गंगा किनारे सड़क और सामने मां गंगेकी अविरल धारा।मंदिरकी सीढ़ियों पर पहुंचते ही सुरक्षागार्डने मास्क बढ़ाया।हालांकि,मैंने मास्क लगा रखा था,तथापि एसआईएसकी यह सेवा मुझे बहुत प्रभावित कर गई,मैंने एसआईएसकी ओर से एक मास्क स्वीकार किया और उसी मास्कमें मंदिरकी सीढ़ियां चढ़ा।
हिन्दू आस्थाके अनुसार भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्माजीकी कायासे उत्पन्न हुए हैं और यमराजके सहयोगी हैं।भगवान चित्रगुप्तके हाथोंमें कर्मकी किताब, कलम,दवात और करवाल है।ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनीसे जीवोंको उनके कर्मोंके अनुसार न्याय मिलती है।इसाई धर्ममें यह भूमिका संत पीटर निभाते हैं।
यूं तो भारतमें भगवान चित्रगुप्तके अनेक मंदिर हैं, परन्तु इनमेंसे पौराणिक एवं एतिहासिक महत्वके निम्नांकित कुछ मंदिर,कायस्थोंके चारधामोंके समतुल्य महत्व रखते हैं:-
1.मध्य प्रदेशके उज्जैन जिलेके अंकपातमें स्थित शिलामंदिर-पौराणिक आख्यानोंके अनुसार मान्यता है कि कायस्थोंके आदि पूर्वज,श्री चित्रगुप्तजीका प्रादुर्भाव, कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीयाको,पौराणिक अवन्तिका अथवा उज्जयिनीके अंक-पात क्षेत्रमें हुआ था।यहीं पर उन्होंने देवगुरु बृहस्पति तथा दैत्योंके गुरु शुक्राचार्यसे सभी शिक्षाएं प्राप्त की और धर्मराजके सहायकका पदभार ग्रहण किया था।सन्1985ई. तक क्षिप्रा नदीके किनारे,इसी अंकपातके वन क्षेत्रमें एक चौकोर शिला स्थापित थी जिसके एक ओर धर्मराजजी और दूसरी ओर श्रीचित्रगुप्तजीके चित्र उकेरे हुए थे। ‘चित्रगुप्त शिला’पर एक मंदिरका निर्माण कार्य कराया गया है,जो अब ‘चित्रगुप्तशिला मन्दिर’कहा जाता है।
2.श्रीधर्महरि चित्रगुप्त मंदिर,अयोध्या:-यह सरयू नदीके दक्षिण,नयाघाटसे फैजाबाद राजमार्ग पर तुलसीउद्यानसे लगभग 500मीटर पूर्व दिशा में,डेरा बीबी मोहल्ले में, बेतियाराज मंदिरके निकट है।पौराणिक गाथाओंके अनुसार,स्वयं भगवान विष्णुने इस मंदिरकी स्थापना की थी।धर्मराजजीको दिये गये वरदानके फलस्वरुप ही धर्मराजजीके साथ इनका नाम जोड़कर इस मंदिरको ‘श्री धर्म-हरि मंदिर’का नाम दिया गया है।किंवदंति है कि विवाहोपरान्त जनकपुरसे आने पर श्रीराम-सीता ने सर्वप्रथम धर्महरिजी के भी दर्शन किये थे।
3.श्रीचित्रगुप्तस्वामी मंदिर,कांचीपुरम(तमिलनाडु):-
श्रीचित्रगुप्तस्वामीका एक भव्य मंदिर,मंदिरोंकी नगरी कांचीपुरममें स्थित है।यह नगरके मध्यमें,श्रीरामकृष्ण आश्रमके निकट है।इसे चोल राजवंशके राजाओंने 9वीं शताब्दी में बनवाया था।
4.चित्रगुप्तका एक महत्वपूर्ण मंदिर खजुराहोमें भी है।लेकिन,यह मंदिर खजुराहोके पर्यटकोंके आकर्षणका केन्द्र नहीं है।
5.”श्री चित्रगुप्त आदिमंदिर,पटना”
बताया जाता है कि इस मंदिरका निर्माण,नंदवंशके अंतिम मगधसम्राट धनानन्दके प्रसिद्व महामंत्री, चित्रगुप्तवंशी मुद्राराक्षसने ईसापूर्व कराया था।यह भी कहा जाता है कि इस मंदिरका पुनर्निर्माण,मुगलसम्राट अकबरके नौरत्नोंमें से एक वजीर-ए-खजाना और शेरशाह सूरीके भी मंत्री रह चुके राजा टोडरमल तथा उनके नायब रहे कुंवर किशोर बहादुरने काली कसौटी पत्थरकी भगवान चित्रगुप्तजीकी मूर्ति सन1574ई में स्थापित कराई थी।सन् 1766ईमें राजा सिताबराय ने मंदिर के चारों ओर की भूमि,मंदिरके नाम करवाकर चारदीवारी बनवाई थी।राजा सिताबरायके नाती,महाराज भूपनारायण सिंहंने जयपुरसे मंगवाये गये नक्काशीदार पत्थरोंसे मंदिरको भव्यता प्रदान की थी।1950-60के दशकमें मंदिरमें स्थापित कसौटी पत्थरकी मूर्ति तस्करों द्वारा चुरा ली गईथी।सन्1962ई में,पटनासिटीवासी, चित्रगुप्तवंशी राजा रामनारायण वंशज राय मथुरा प्रसादजीने मंदिरमें,स्फटिक पत्थरकी मूर्ति स्थापित करवाकर,मंदिरको प्रतिष्ठा दिलाई थी।यही मूर्ति 11.11.2007तक इस मंदिरमें शोभायमान रही।1950के दशकमें भगवान चित्रगुप्तकी चोरी गई दुर्लभ प्रतिमा लगभग 5दशकके बाद गंगाके उत्तरी छोर पर चित्रसेनपुर गांवके एक खेतसे बरामद हुई।इस प्रकार,2500वर्ष पुराने इस मंदिरमें काली कसौटी की मूर्त्ति एक बार पुनः स्थापित हो गई है।प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसादने भी इस मंदिरमें पूजा- अर्चना की थी।
इस मंदिरके सैकड़ों साल पुराने मूर्तिके चोरी जाने और पुन: बरामद कर लिए जानेके बाद लगभग 100 करोड़से ज्यादा की लागत से मंदिरको भव्यता प्रदान करने की कोशिश जारी है।प्रथम तल पर चित्रगुप्तको उनकी दोनों रानियों और 12पुत्रोंके साथ स्थापित किया जाएगा।चित्रगुप्त महापरिवारके साथ-साथ प्रथम तल पर ही शिव परिवार,राम दरबार,राधाकृष्ण,नवदुर्गा, नवग्रह,गणपति और हनुमानकी प्रतिमाओंकी भी स्थापना की जाएगी।मंदिर परिसरमें 40अन्य देवी- देवताओंके मंदिर भी होंगे।मंदिरके अलावा मंदिरसे सटी जमीनपर सभागार,जेपीकी स्मृतियोंको समर्पित दहेजरहित सामूहिक विवाह मंडप,इतिहास और स्वतंत्रता संग्राममें महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभानेवाले कायस्थ विभूतियोंकी मूर्तियोंकी प्रदर्शनी और तीर्थयात्रियोंकी सुविधाके लिए एक अतिथिगृहका निर्माण भी प्रस्तावित है।हरिद्वारके हरकी पौड़ीकी तर्ज पर मंदिरके पास एक सुंदर घाटका निर्माण भी प्रस्तावित है।
किंवदंती है कि श्रीराम,लक्ष्मण और महर्षि विश्वामित्र ताड़का-वध करके गंगाके किनारे-किनारे बक्सरसे पटना तक आये थे।राजा जनकके स्वयंवर आमंत्रण पर जनकपुर जाने के क्रम में इसी घाटसे नावसे गंगापार किया था।सीताको लेकर भी इसी रास्ते लौटे थे।यहां एक प्राचीन सीता मंदिर भी है।
कन्हैया भैया और मैं मंदिर परिसर से बाहर आते हैं और कदम खुद-ब-खुद मां गंगे की और बढ़ जाते हैं।मरीन ड्राइवकी नकल करती एक नई सड़क मांगंगे के किनारे-किनारे दीखती है।हम दोनोंका अनुमान होता है कि यह पश्चिममें गायघाटसे शुरू होकर पूरबमें कंगन घाट तक गई होगी।मैं लक्ष्य करता हूं-यहीं सूफी संत नौजर शाहका मजार भी है।लेकिन,मैं कन्हैया भैयाके साथ किए गए वादेको याद करता हूं।हम दोनों दीवान मुहल्लेकी गलियों को पारकर कार तक आते हैं।अभी कार बमुश्किल आधा किलोमीटर बढ़ी होगी कि एक नई सड़क दाहिने भद्रघाट,जिसे स्थानीय अपभ्रंशमें बदरघाट कहते हैं,की तरफ जाती दिखती है।कन्हैया भैया कार भद्रघाटकी ओर मुड़वाते हैं,ताकि आश्वस्त हुआ जा सके कि मैरीन ड्राइव गायघाटसे ही शुरू होकर कंगनघाट तक गई है।लेकिन,जैसे ही हम गंगा किनारे निकलते हैं,पता चलता है कि भद्रघाटसे पश्चिम गायघाट तक जानेका कोई रास्ता नहीं है।कारको हमलोग चित्रगुप्तघाट तक लाकर दीवान मुहल्ला होकर अशोक राजपथ पर लाते हैं और पश्चिमकी तरफ बढ़ते हैं,अपने घरकी ओर.…।
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