…….नाम से पहचाना जाता था
उन्हें उन दिनों,
“माल” नहीं हुआ करती थीं वो।
…….उन दिनों स्कूल जाती लड़कियों को,
लड़के सिर्फ ताका झांका करते थे।
स्कर्ट….की लंबाई ,
नहीं नापा करते थे।
…….उन दिनों प्रेम,“मुड़ के देखा क्या?”
मुस्कराने तक ही सीमित था।
……..उन दिनों,बच्चियां,घन्टो,बेबाक
खेला करती थी आस पडौस में।
………उड़ती फिरती थीं उन दिनों बच्चियां
तितलियों के संग बाग बगीचों में।
………क्योकि उन दिनों,लड़के भी
खेलते दिखते थे मैदानों में।
पढ़ लोटपोट, कॉमिक्स,कहानियां
लोट जाया करते थे दालानों में।
………किन्तु अब,वो रहते है एकांत
बन्द दरवाजों के पीछे,
छोटे-बड़े मकानों में।
……..और अब..अब खेलते है वो
मोबाइल पर सस्ता,सरल
भद्दा और उत्तेजक खेल।
………गरीब-अमीर,महंगा-सस्ता ,
बंद-खुले ,गली-बाजार
हर जगह है,सब को ,
उपलब्ध….हाँ…. ये
पोर्न…पोर्न का खेल।
………तभी ……..तो
गाँव, शहर,कस्बे के
बागों में अब कलियां
कहाँ खिलतीं हैं।
मैदानों की घनी
झाड़ियों के पीछे,
…….. फ़टी फ्रॉक खून सने कपड़े
नुची आँख, कुचला सर,सिर्फ
मसली हुई बच्चियां ही मिलती हैं
… समंदर को बस.. इतनी सी बात खल गई..
की काग़ज की नाव
मुझ पर कैसे चल गई..

संगीता सिंह..
सामाजिक कार्यकर्त्ता
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