“गेंहू, चावल तो राशन से मिल रहा है। लेकिन साग-सब्जी खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तबियत खराब हो जाए, तो इलाज के लिए पैसे चाहिए। गांव में सरकारी डाॅक्टर नहीं हैं। स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर गांव में आंगनवाड़ी कार्यकतृी हैं। उनका काम दो बूंद जिन्दगी तक सीमित है। लाॅकडाउन में यह काम भी बंद है। गांव वालों के लिए स्वास्थ्य केन्द्र का नाम बताना बड़ी चुनौती है। लाॅकडाउन में गांव वालों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं बिल्कुल ही नदारद है। गांव वालों का इलाज पहले ही प्राइवेट डाॅक्टरों के भरोसे रहा है। आपात परिस्थिति में अगर ये डाॅक्टर, गांव से हट जाएं या सुई-दवाई बंद कर दें, तो गांव वालों को प्राथमिक उपचार से वंचित होना पडे़गा।” ये कहना है भारत के एक गांव के बुनकर मज़दूर मेराज अंसारी का। मेराज अंसारी जवानी में ही वृद्ध दिखते हैं। हथकरघा का चलना ही इनके घर-परिवार का चलना है। हथकरघा का इतिहास कबीर से भी पुराना है। हथकरघा के ताने-बाने पर दुनिया के बेहतरीन कपड़े तैयार होते रहे हैं। पिछले लगभग तीन दशकों में बड़ी संख्या में पावरलूम ( बिजली चालित करघा ) ने हथकरघा का स्थान लिया है। लेकिन मेराज अंसारी जैसे बुनकर अभी भी हथकरघा ही चलाते हैं। इस काम में इनका पूरा परिवार (बच्चे, बड़े, बूढ़े और महिलाएं सभी) सहायक की तरह शामिल है। हथकरघा पर गमछा और लुंगी आदि वस्त्र की बुनाई के बाद, इसे बाज़ार तक पहुंचाना होता है। हथकरघे पर तैयार सामान को बाज़ार पहुंचाना ज़ोखि़म भरा काम होता है। लेकिन गरीब को दो पैसे कमाने के लिए सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि अपने खाने-पीने की वस्तुओं और यात्रा के खर्च में भी कटौती करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर घर-परिवार का पेट पलता है। इसलिए मेराज़ अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों को अपनी ज़िन्दगी दाव पर लगाने का जोखि़म उठाना पड़ता है।
एक दिन की बात है। मैं अपने मित्र विजय राव के साथ मऊ की ओर जा रहा था। मेरी नज़र एक बाइक सवार पर पड़ती है। हम लोगों की रफ्तार उस बाइक सवार से कुछ अधिक होती है। हम लोगों और बाइक सवार के बीच का फासला लगातार कम होता जाता है। मैं बाइक सवार से रूकने का इशारा करता हूं। रूकने की वजह बाइक पर लदे हुए कपड़े और बाइक सवार की स्थिति होती है। बाइक सवार अपने चेहरे से हेलिमेट हटाता है। अरे! ये तो मेराज भाई हैं! मैं और विजय भाई हैरान होते हैं। हम हैरान होने के सिवा मेराज भाई के लिए कुछ कर नहीं पाते। हर मुलाक़ात की तरह, इस मुलाक़ात में भी कुछ औपचारिक बातों के साथ सिर्फ यही बता पाए, कि श्रम विभाग में मज़दूरों का पंजीकरण कहां और कैसे होता है। हथकरघा पर काम करने वाले बुनकर मज़दूरों का पंजीकरण कहां होता है। बुनकर मज़दूरों लिए सरकार की ओर से कौन सी योजनाएं चलाई जा रही हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती है। मेराज अंसारी की बाइक शायद इस लायक नहीं है, कि उससे एक जगह से दूसरी जगह जाया जा सके। मैं भूल नहीं पाता कि उन्होंने किस जतन से बाइक को रोका था। जब चलने को हुए तो संतुलन बनाने में कितनी मशक्क़त करनी पड़ी थी। यही नहीं बाइक को कुछ दूर ठेलना पड़ा था। तब मुझे इल्म हुआ कि बुनकरी सिर्फ ताने-बाने पर सूत और धागों को सुलझाने का नाम नहीं है। बल्कि बुनकर मज़दूरों को बाज़ार तक तैयार माल पहुंचाने में ज़िन्दगी दाव पर लगाने का नाम भी है। मेराज अंसारी जैसे बुनकरों की जीवन शैली को समझना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि गांव के अर्थतंत्र को संभालने में मेराज़ अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों का बड़ा योगदान है। इनकी मेहनत से ही पूंजी निर्माण होता है। जब इनका कुनबा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर रहकर काम करता है, तो गांव में पूंजी का प्रवाह बनता है। लाॅकडाउन ने मेराज़ भाई जैसे बुनकर मज़दूरों को न सिर्फ घरों और गांवों में लाॅक कर दिया है, बल्कि इनके रोज़ी-रोटी पर भी तालाबंदी कर दी है। हालांकि मेराज भाई अपनी बाइक से सामान पहुंचाने का बड़ा ख़तरा उठाते रहे हैं। लेकिन लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति ने उससे भी बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। यह ख़तरा है आजीविका का। जिस पर संकट के बादल मंडला रहे हैं।
रसूलपुर उन गांवों में है, जहां बुनकर मज़दूरों का ताना-बाना ही ज़िन्दगी की पहली और आखि़री उम्मीद है। लाॅकडाउन में हथकरघे बंद पड़े हैं। ऐसे में मेराज अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों को न तो बुनकरी का काम करना पड़ रहा है और न ही हथकरघा पर तैयार सामान बाज़ार तक पहुंचाने का काम करना पड़ रहा है। लेकिन मज़दूर काम न करे, तो ज़िन्दगी बोझ बन जाती है। वो ख़तरा न उठाए तो खाने को लाले पड़ जाते हैं। अभावों का जीवन जीने वाले मज़दूर लाॅकडान का सामना जिस साहस से कर रहे हैं, वो वाकई लाजवाब है। उधर दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े-बड़े शहरों से प्रवासी मज़दूर साइकिल और पैदल ही हज़ारों मील दूर अपने घरों के लिए रवाना होने का हौसला दिखा रहे हैं, तो इधर गांवों में बहुत से मज़दूर बिना अर्थ के ही पेट के अर्थशास्त्र के साथ तालमेल बनाने का नज़ीर पेश कर रहे हैं। मज़दूरों के धैर्य, संयम और अनुशासन की इससे बड़ी परीक्षा और क्या हो सकती है?
लाॅकडाउन की अवधि में आवश्यक सेवाओं को जारी रखने की अनुमति है। हम जानते हैं कि हर सेवा के तार किसी न किसी तरह पेट से जुड़े होते हैं। खाद्यान्न आपूर्ति, साग-सब्जी, गैस सप्लाई और किराने की दुकानों को खोलने की अनुमति इसी उद्देश्य से है। लेकिन मेराज अंसारी जैसे बुनकर मज़दूरों के लिए खाद्यान्न आपूर्ति को छोड़कर अन्य सभी सेवाओं का कोई मतलब नहीं है। मेराज अंसारी बताते हैं कि बाज़ार जाने के लिए पैसे चाहिएं। जो उनके पास नहीं हैं। उन जैसे मज़दूरों के लिए बैंक का खुलना-बंद होना भी बेमानी है। उनके पास कोई बैंक बैलेन्स नहीं है और न ही किसी योजना के तहत सरकार की ओर से कोई धनराशि उनके खाते में भेजी गयी है।
गांव का अर्थशास्त्र समझने के लिए गांव के लोगों से संवाद और उनकी जीवन शैली को समझना जरूरी है। मेराज अंसारी बताते हैं कि ‘जो लोग कपड़ा बुनकर आजीविका अर्जित करते हैं, या मज़दूरी करके दो जून की रोटी जुटाते हैं, उनके हाथ खाली हैं। गेंहू और चावल तो राशन से मिल रहा है। लेकिन साग-सब्जी खरीदने के लिए पैसा चाहिए। तबियत खराब हो जाए, तो इलाज के लिए पैसे चाहिए। रोज़मर्रा ज़रूरत की वस्तुओं के लिए किराना के दुकान पर जाना हो, तो बिना पैसे कैसे जाया जाय? यह बात समझ से परे है। कोई उधार भी दे, तो कैसे दे? उधार मांगा जाए तो, किससे और कब तक?’ मेराज अंसारी जैसे मज़दूरों की बातें सुनकर अंदाज़ा होता है कि गांव के किराना वाले का अर्थतंत्र भी पूंजी के बहाव में बह जाने के कगार पर पहुंच गया है। इन दिनों गांव के लोग महामारी की आपात परिस्थिति से उपजी इन समस्याओं से जूझ रहे हैं। मज़दूर काम पर नहीं जा रहे हैं। रोज़ कमाने वाले-खाने वाले मज़दूरों के सामने जीवन और मृत्यु का संकट मंडला रहा है। राशन का अनाज बिना तेल-नमक, आलू-प्याज, दाल और मिर्च-मसाले के कैसे खाया जाता है, यह मज़दूर ही जानता है। रसूलपुर गांव के लगभग ज़्यादातर परिवारों की आजीविका मज़दूरी पर ही निर्भर है। रोज-कमाने खाने की प्रक्रिया में शामिल मज़दूरों में कोई लूम चलाता है, कोई बुनाई करता है, कोई गारा-माटी करता है, तो कोई खेत मज़दूर है। इनमें हर परिवार की महिलाएं भी काम करती है। बच्चे भी अपने घर के काम में सहायक की भूमिका निभाते हैं। यदि पूरा परिवार एक इकाई की तरह काम न करे, तो खाए बिना मरने की नौबतें पैदा हो सकती हैं। यह समय लाॅकडाउन की आपात परिस्थिति का है। मज़दूरों के हाथ-पैर बंध से गए हैं।
मनरेगा मज़दूरों के लिए राहत की बात है। उनके लिए काम का आवंटन हो रहा है। उनके खाते में पैसे आना भी उनके लिए बड़ी राहत का सबब है। लेकिन बहुत से मज़दूर और उनका परिवार पात्र होते हुए भी मनरेगा जाब काॅर्ड या श्रमिक सन्निर्माण मजदूर की पहचान से वंचित है। इस वजह से ऐसे मज़दूर 1000 रूपए के मुख्यमंत्री राहत राशि से भी वंचित हैं। मेराज अंसारी की बात करें तो, ये बुनकर मज़दूर हैं। इसलिए मनरेगा और श्रमिक सन्निर्माण मज़दूर की पहचान से वंचित हैं। समाज सेवी संस्थाओं द्वारा मदद के तौर पर भोजन का पैकेट पहुंचाए जाने की खबरें टीवी स्क्रीन और अख़बारों का हिस्सा ज़रूर बन रही हैं। लेकिन रसूलपुर गांव की बात करें, तो अभी तक यह गांव ऐसी किसी मदद से अछूता है। गांव के लोग सरकार की ओर मुंह किए मदद के इंतेज़ार में हैं।
मेराज अंसारी इस बात से भी चिन्तित हैं कि मैं उनके गांव की कहानी सुधी जनों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं, तो इससे गांव के लोगों के समक्ष विशेषकर मेराज अंसारी को किसी तरह की समस्या का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए यह बताना भी ज़रूरी है कि इस आलेख का उद्देश्य सामाजिक व सामुदायिक जीवन में बेहतरी के प्रयासों में सहभागी बनना है। न कि डर का मनोविज्ञान तैयार करना या किसी व्यक्ति या संस्था की कार्यशैली की बुराई करना है।
नोटः यह लेख उत्तर प्रदेश के जिला ग़ाज़ीपुर स्थित रसूलपुर गांव के पुराने अनुभवों और लाॅकडाउन के दौरान क्रमशः 12, 13 और 15 मई 2020 को बुनकर मज़दूर मेराज अंसारी से हुई विशेष बातचीत पर आधारित है।
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