भागवत कहती है कि चंचलता तो मन का सहज स्वभाव है। यह एक जगह स्थिर रह ही नहीं सकता। यह अपनी ज्ञानेन्दिय रूपी पाँच पत्नियों (शब्द – स्पर्श – रूप – रस – गंध) का संसर्ग पाकर और भी अधिक सबल होता जाता है। बिना इनके सहयोग के यह मन न तो अधिक दूर तक दौड सकता है, और न अधिक देर तक इधर – उधर भटक सकता है। इसलिये यदि मन को मनमानी करने से रोकना है, तो इसकी इन पाँच पत्नियों की खुराक में कमी करते जाओ, यह स्वयं ही दुर्बल होकर शांत हो जाएगा।
इस मन की दौड अनन्त है। यह मन परमात्मा का बनाया हुआ है। इसलिये जब वे जीव को इस संसार में भेजते हैं, तो स्पष्ट कह देते हैं कि – अब तुम्हारी परीक्षा शुरू होती है। मेरे द्वारा प्रदत्त इस निर्मल मन को तुम मुझमें लगाकर निर्मल भी बनाए रख सकते हो और इसे संसार में लगाकर मैला भी कर सकते हो। मन को निर्मल बनाए रखकर मुझमें लगाए रखना, तुम्हारा मुझमें लय हो जाना माना जाएगा। और संसार में लगाकर मैला कर लेना ,जन्म – जन्मांतरों तक पुनः गर्भों में लटकने का कारण बन जाएगा।
आचार्य आशीष शांडिल्य
(व्याकरणाचार्य)
श्रीधाम अयोध्या
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