उत्तरप्रदेश विधानसभाके पिछले 3 चुनावोंके कुल वोटों की संख्या और हुए मतदान प्रतिशतका अध्ययन, आकलन और विश्लेषण करें-2007में कुल वोट थे 11.30करोड़-वोट पड़े 45.96%,2012में कुल वोट थे 12.74करोड़-कुल वोट पड़े 59.40%,2017में कुल वोट थे 14.05करोड़-कुल वोट पड़े-61.04%।इन आंकड़ों के आधार पर एक अनुमान किया जा सकता है कि 2022के चुनाव में कुल वोट होंगे 15.50करोड़ और डाले जानेवाले वोटोंका प्रतिशत हो सकता है- 65% यानि कि तकरीबन 10करोड़ से ज्यादा वोट पड़ेंगे। अब आइए,इन वोटोंमें भाजपाके वोटोंके हिस्सा का अनुमान करें।भाजपाको 2007में16.97%,2012में 15%,2017में भाजपाके वोटोंमें जबरदस्त उछाल आया और वह 39.67% पर पहुंच गया।
जाहिर सी बात है,भाजपाके कोर वोटर 15-17% ही हैं।भाजपा के वोटों में यह जबरदस्त उछाल की वजह राष्ट्रीय राजनीतिमें मोदीजीका प्रवेश था।आरएसएसने 7दशक से ज्यादा समय से सहयात्री रहे लालकृष्ण आडवाणीसे पिंड छुड़ाकर राजनीतिकी ड्राइविंग सीट पर मोदीको बैठाया था।आडवाणी वह चेहरा थे,जिन्होंने भाजपाके पहले आमचुनाव,जो 1984में हुए थे,में महज दो सीटों पर सिमट चुकी भाजपाको अपने राजनैतिक संगठन कौशल और संघर्षपूर्ण जिजीविषा से 1998में सत्ताके मुकाम तक पहुंचाया था।जब उनके मित्र प्रधानमंत्री पद पर उन्हें पदासीन देखना चाह रहे थे,तो प्रधानमंत्रीके आसन तक अटलजीको ले गए।मोदीने आरएसएसके सामने खुद को हिंदू हृदय सम्राट के रूप में प्रस्तुत किया तो पूरे देशके सामने खुद को विकासपुरूष घोषित किया।गुजरातके लोगोंमें वैसे भी उद्यमशीलता कूट-कूट कर भरी है,प्रति व्यक्ति आय में वह वैसे भी अन्य प्रदेशों से आगे है,लेकिन मोदीने अपने मार्केटिंग स्किल से यह स्थापित किया कि गुजरातके विकासकी पटकथा सिर्फ उन्होंने लिखी है,वह एक बेहतरीन’सपनों के सौदागर’ साबित हुए।मोदीके पास तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहको निरूत्तर कर देने वाले सवालोंकी झड़ी तो थी ही, गुजराती थैलीशाहों की बैकिंग भी थी।भीड़में जोश भर देनेका संवाद कौशल था,तो दूसरी तरफ फेसबुक/ट्विटर पर काम करने वाले आईटी विशेषज्ञोंकी फौज थी।
2017के विधानसभा चुनावमें तत्कालीन सत्ताधारी दल-समाजवादी पार्टी-पारिवारिक कलह की शिकार थी।2017में मोदी लोकप्रियताके शिखर पर थे,वोट भी उन्होंने अपने नाम पर मांगा था,डबल इंजनकी सरकारका वादा किया,सो भाजपाके वोट प्रतिशतमें जबरदस्त उछाल आया,लेकिन आज वह बात कहां?इंडिया टुडेके अप्रकाशित सर्वेक्षण,जिसमें मोदीकी लोकप्रियताका ग्राफ 42%की गिरावट दर्ज करते हुए 66%से घटकर 24%बताई गई है।उत्तरप्रदेशके मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता का ग्राफ 49%से घटकर 29%तक पहुंच गया है।2022के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावमें भाजपा अपने कोर वोट-15-17%बचा ले,तो बड़ी बात होगी।एक उदार दृष्टिकोण-लिबरल एप्रोच-के तहत अगर इसे कोर वोटर 15-17%का डेढ़ गुना 25% भी मान लिया जाए,तो 10करोड़ संभावित वोटों में से 2.5करोड़ वोट भाजपाको मिलेंगे।शेष 7.5-8करोड़ वोट विपक्षको मिलेंगे।
इन विरोधी मतोंकी पहली दावेदार समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव हैं।समाजवादी पार्टी को 2007में 25.43%,2012में जब वह सत्तामें आई थी,तो 29.15% वोट मिले।2007और 2012में उसे भाजपा से ज्यादा वोट मिले थे।2017में जब वह सत्ता गंवाकर 47सीटों पर सिमट गई,तो भी उसे 21.82% वोट मिले थे। समाजवादी पार्टी का सबसे सकारात्मक पक्ष अखिलेश यादव का उच्च शिक्षा प्राप्त टेक्नोक्रेट होना और अत्यन्त सभ्य, सुसंस्कृत,शालीन होना है।वह कभी भी शब्दोंकी मर्यादा का परित्याग नहीं करते,ऐक्ट करते हैं-रिऐक्ट नहीं करते। लेकिन नकारात्मक यह है कि पिछड़ावाद के लिए उत्तरप्रदेश में राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह ने जो कुछ जोता बोया,उसे 1990के दशक से मंडलवाद के नाम पर यह पार्टी फसल काटती रही है।मुलायम सिंह यादव पिछड़ोंके मसीहा भले बनते हों,सेक्यूलरवाद के नाम मुसलमानों का उनको समर्थन भी मिलता हो, लेकिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव रहे हों या अखिलेश यादव-सत्ता का लाभ यादव जाति को ही मिलता रहा है,गैर-यादव पिछड़ा सत्ता के लाभ से वंचित ही रहा है।
सबसे मजेदार पक्ष यह है कि श्रीराम मंदिर निर्माण ट्रस्ट द्वारा किए गए घोटालों के उजागर होने के बाद भाजपा साम्प्रदायिकता का जहर घोलने के लिए किसी अन्य प्रतीकों का सहारा भले ले,श्रीराममंदिर निर्माणको चुनावी विमर्शमें लाने की स्थिति में नहीं है।भाजपा खुद ही पिछड़ावाद का राग अलाप रही है,जबकि 2017में केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाने का वादा करके भी उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया।पिछड़ावाद अगर चुनावी मुद्दा बनता है,तो भाजपा समाजवादी पार्टी से आगे जाने का सोच भी नहीं सकती
सत्ताकी दूसरी दावेदार मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी थी।बसपाने 2007में 30.43%के साथ 15872561 वोट प्राप्त किए और वह अकेले 206 सीट जीत कर सत्तासीन हुई।2012में बेशक इसने सत्ता गंवायी,लेकिन 25.91%वोटके साथ 19647303 वोट प्राप्त किए अर्थात् इसके अपने वोटोंमें लगभग 24% इजाफा हुआ।2017में बसपाको बेशक महज 19 सीटें मिली,लेकिन तब भी इसे 19281352वोट मिले अर्थात् इसके वोटोंमें 2%से भी कमकी गिरावट दर्ज की गई।
लेकिन नागरिकता संशोधन कानून और धारा 370पर जिस प्रकार बसपाने भाजपाका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग किया है,उससे मायावती की राजनीतिक साख धराशायी हुई है।दूसरी तरफ,मोदीराजमें सीबीआई और आईबी के संभावित कार्यवाहियों से मायावती आतंकित और आशंकित रहीं।लालू प्रसादवाली जीवटता उनमें है नहीं।2012-17के दौरान बेशक वह सत्तामें नहीं थी, लेकिन अखिलेशने उनके विरुद्ध कोई प्रतिशोधात्मक प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की थी।भाजपासे बदला लेने का उनके पास सुनहरा अवसर है कि वह गैर-भाजपा वोटोंको समाजवादी पार्टीके पक्षमें ध्रुवीकृत होने दें और भाजपाकी हार सुनिश्चित करें।मायावती की राजनीतिक अ-सक्रियता उनकी इसी रणनीतिका हिस्सा दीख रहा है।
कांग्रेस को 2007में 8.61%,2012में 11.63% 2017 में 6.25% वोट मिले थे। पूरे उत्तरप्रदेश में ढीला- ढाला ही सही उसका सांगठनिक ढांचा है।अभी भी लोकसभा चुनावके दृष्टिकोण से 206सीटें ऐसी हैं,जहां वह अकेले ही भाजपाको टक्कर देती है।राष्ट्रीय स्तर पर बिना कांग्रेसके किसी भी प्रभावशाली गैर-भाजपा मोर्चेकी सफलताकी कोई संभावना नहीं है।लेकिन, भाजपाको शिकस्त देनेके लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव,2020में आम आदमी पार्टी और प.बंगाल विधानसभा चुनाव,2021में तृणमूल कांग्रेस को रणनीतिक तौर पर अघोषित वाक-ओवर दिया।संभव है,उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022में भी वह यही अघोषित रणनीति अपनाए।
समाजवादी पार्टी ने इस बार राष्ट्रीय लोकदल से रणनीतिक समझौता कर रखा है।पश्चिमी उत्तरप्रदेश में किसान आंदोलन के कारण भी रालोद के सहयोगसे समाजवादी पार्टीके वोट प्रतिशतमें इजाफा होने की संभावना है।बसपा और कांग्रेसके घोषित-अघोषित सहयोग-समर्थनसे समाजवादी पार्टीका वोट प्रतिशत 30%से कम होनेकी कोई संभावना नहीं है।
विधानसभाके चुनावोंके संदर्भ में,चाहे पक्ष में हो या विपक्ष में,अब तक चर्चा सिर्फ भाजपा की हो रही है।विपक्षकी रणनीति अभी तक अस्पष्ट है और अभियान की शुरुआत कायदे से हो भी नहीं पाई है।
भाजपा को 25% और समाजवादी पार्टी गठबंधनको 30%वोट के अतिरिक्त शेष 45% वोट अभी तक अनकमिटेड वोटर दिखते हैं,जिस पर वैकल्पिक राजनीति की मशाल थामे एक्टिविस्टोंकी निगाह है,जो कई खेमोंमें बंटे हैं।बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि देशको इस या उस नेता का नहीं,इस या उस पार्टी का नहीं पूरी सड़ी-गली राजनैतिक संस्कृतिके विकल्प की तलाश है।यह वर्ग वैकल्पिक राजनीतिके संवाहकोंके प्रति बड़ी आशा भरी निगाहों से देख रहा है।प्रिंट,इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया के एक बड़े हिस्से पर सरकार और भाजपाका वर्चस्व दिखता है।डिजिटल मीडियाका बहुत थोड़ा सा स्पेस उपलब्ध है,जिसे वैकल्पिक मीडिया कहा जा रहा है, यह वैकल्पिक मीडिया वैकल्पिक राजनीतिका प्रवक्ता है।यह वैकल्पिक मीडिया और वैकल्पिक राजनीति उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावमें क्या गुल खिलाएगा,यह देखना खासा दिलचस्प होगा।
पंकज श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार
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