उत्तर प्रदेश धर्म

कार्तिक पूर्णिमा विशेष: विश्व का एकमात्र संगम जहाँ होता है पांच नदियों का मिलन, मिला महातीर्थराज का स्थान

Written by Vaarta Desk

इटावा (उत्तरप्रदेश)। महाकालेश्वर धाम पर पांच नदियों का संगम होता है और इसे ‘पचनद’ के नाम से जाना जाता है। इटावा और जालौन की सीमा पर पचनद का स्थान प्रकृति का अनूठा उपहार है और हिंदू धर्म से जुड़े लोगों के लिए यह आस्था का केंद्र है। वैसे तो सालभर में यहां सिर्फ एक बार मेला लगता है जो एक लम्बे समय तक चलता है, लेकिन खास स्नानों के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। तीन नदियों का संगम होने से यूपी का प्रयागराज संगम कहलाया, ठीक वैसे ही पचनद को महा तीर्थराज के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यहां पांच नदियों का संगम होता है।”दरअसल, पंचानंद के पल्ली पार जालौन के मुख्यालय उरई से पचनद की दूरी 65 किमी है। यह स्थान रामपुरा ब्लाक में पड़ता है। इस तरफ चकरनगर तहसील से तकरीबन दूरी 27 किलोमीटर है और यह महाकालेश्वर मंदिर विकासखंड चकरनगर के अंतर्गत आता है, ये दुनिया का इकलौता स्थान है। जहां पांच नदियों का संगम है।

पचनद में यमुना, चम्बल, सिंध, पहुज, क्वांरी नदियां बहती हैं। यह शाम ढलने के साथ यहां का नजारा अद्भुत होता है। रामपुरा ब्लाक से इसकी दूरी मात्र 15 किमी है। इतिहास के पन्नों में पचनद से जुड़ी हुईं कहानियां हैं, जिनका उल्लेख यहां आसपास मौजूद मंदिरों में मिलता है। पांडवों ने यहां काटा था अज्ञातवास देश के कोने-कोने में हर स्थान से जुड़ी हुईं तमाम कहानियां हैं। वैसे ही बताया गया है कि महाभारत काल में पांडवों ने अज्ञातवास का एक वर्ष इसी पचनद के आसपास बिताया था। भीम ने इसी स्थान पर बकासुर का वध भी किया था।

यहां कार्तिक पूर्णिमा में हर वर्ष एक ऐतिहासिक मेला लगता है। इस मेले में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान से लाखों श्रद्धालुओं का जमघट लगता है। इसके कारण इस पचनद के पास असीमित जल भंडार है। पचनद में पांच नदियों का संगम है, लेकिन इस संगम से जुड़ी एक कहानी है, जिसके आगे स्वयं ही गोस्वामी तुलसीदास को नतमस्तक होना पड़ा था। यहां के एक तपस्वी ऋषि की कहानी कुछ ऐसी थी कि उनकी ख्याति के चलते तुलसीदास ने उनकी परीक्षा लेनी की ठानी। ऐसा माना जाता है कि जब तुलसीदास को प्यास लगी तो उन्होंने यहां पर किसी को पानी पिलाने के लिए आवाज दी। तब ऋषि मुचकुंद ने अपने कमंडल से पानी छोड़ा जो कभी नहीं खत्म हुआ और फिर तुलसीदास जी को उनके इस प्रताप को स्वीकार करना पडा था।

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