ऑन लाइन शिक्षा के दुष्प्रभावों से आगाह कर रहे वरिष्ठ शिक्षक डॉ वसीम अख्तर
ऑनलाइन शिक्षा में माध्यम के तौर पर इंटरनेट के कई ख़तरे हैं। इनको नज़र अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। यह सच है कि इंटरनेट ने बहुत से काम आसान किए हैं। हम जानते हैं कि कोई बीस-पचीस बरस पहले एक चिट्ठी को एक शहर से दूसरे शहर तक पहुंचने में 5 से 15 या इससे भी अधिक दिनों तक का समय लगता था। अब चिट्ठियों के लिए कागज की ज़रूरत नहीं होती है। कम्प्यूटर या मोबाइल का एक बटन दबाते ही छोटी-बड़ी हर चिट्ठी दुनिया के किसी भी हिस्से में पहुंच जाती है। स्कूल-काॅलेज की कक्षाओं में शिक्षक का व्याख्यान समाप्त होने के बाद उसे फिर से सुना नहीं जा सकता है। एक स्कूल का छात्र एक ही शिक्षक का व्याख्यान सुन सकता है। लेकिन इंटरनेट हमें ऑनलाइन के जिस संसार में हमें ले जाती है, वहां एक ही विषय पर अनगिनत व्याख्यान और ट्यूटोरियल्स उपलब्ध होते हैं। यदि एक ट्यूटोरियल से विषय नहीं समझ में आता है, दूसरा, तीसरा ट्यूटोरियल्स देखने-सुनने के अपार अवसर होते हैं। बच्चे को जब तक विषय नहीं समझ में आए, वो तब तक ट्यूटोरियल्स देखने के लिए आज़ाद होता है। लेकिन इस प्रक्रिया में समय का एक बड़ा हिस्सा कब गुज़र जाता है, इस बात का पता ही नहीं चलता।
ऑनलाइन की दुनिया की कोई सीमा नहीं है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि बच्चे का कितना समय मोबाइल से पढ़ाई में व्यतीत होगा। ऐसा भी मुमकिन है कि बच्चे का अधिकतर समय उसकी रूचि के किसी एक ही विषय सामग्री को समझने में व्यतीत हो जाए। कहा जा सकता है कि अनगिनत स्टडी मैटेरियल्स को पढ़ना बच्चों के उपयोगी समय के बरबाद होने का कारण बन सकता है। बच्चे मोबाइल का आदी बन सकते हैं। क्योंकि मोबाइल की दुनिया बाल विकास की विविधता के अनुरूप नहीं है। हर मोबाइल स्क्रीन पर आकर्षित करने वाली बहुत से विज्ञापन और एप्स मौजूद हैं, जो बच्चों को भावनात्मक और संवेगात्मक रूप से अत्यधिक सक्रिय और उत्तेजित करते हैं। बच्चों में व्यवहारगत समस्याएं उत्पन्न होती हैं। बच्चा अपने माता-पिता और वास्तविक परिवेश से दूर होने लगता है और मोबाइल की आभाषी दुनिया को ही वास्तविक समझने लगता है। वो एकान्तवास के मनोरंजन की ओर आकर्षित होता है। न समय से खाना-पीना और न समय से सोना-जागना। ऐसी परिस्थिति माता-पिता और अभिभावको के लिए चुनौती बन जाती है, कि वो अपने ही बच्चे को अपना मूल्य और संस्कार कैसे सिखाएं। बच्चा पूरी तरह बाजार और पूंजी आधारित मूल्यों का वाहक बन जाता है। जिसका खमियाज़ा माता-पिता, अभिभावक और समाज को भुगतना पड़ता है।
ऑनलाइन शिक्षा का बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव:
ऑनलाइन पढ़ाई का तरीका बच्चों के लिए फायदेमंद प्रतीत हो रहा है। लेकिन मोबाइल का इस्तेमाल बच्चों के लिए कितना लाभप्रद है, इस विषय पर सरकार या किसी मेडिकल काउंसिल का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। हालांकि ऑनलाइन कक्षाएं 2 घण्टे से 4 घण्टे तक चलाई जा रही हैं। लेकिन व्हाट्सएप पर विडियो मेसेजेज को देखने का कोई समय निश्चित नहीं है। हम जानते हैं कि हर बच्चा एक दूसरे से अलग होता है, जिसे वैयक्तिक भिन्नता कहते हैं। प्रत्येक बच्चे की सीखने के प्रति तत्परता, क्षमता और कार्य कुशलता भिन्न होती है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि किस बच्चे को विषय सामग्री के तौर पर उपलब्ध यूट्यूब विडियो कितनी बार देखना होगा। इसमें अनुमानित समय कितना लगेगा।
यह विचारणीय है कि एक तरफ जहां डाॅक्टर बच्चों को मोबाइल का इस्तेमाल कम से कम करने की सलाह दे रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बच्चों को आॅनलाइन पढ़ाई के नाम पर 4 से 8 घण्टे या इससे भी अधिक समय तक मोबाइल के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जा रहा है। यह बच्चों की आंख और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।
यह बात हम सभी जानते हैं कि आंखे अनमोल हैं। मोबाइल, टीवी या कम्प्यूटर स्क्रीन पर अधिक समय तक देखना आँखों को नुकसान पहुंचा सकता है। डाॅक्टरों का सुझाव है कि बच्चे देर तक टीवी न देखें। बच्चे देर तक मोबाइल न देखें। लेकिन ‘पढ़ाई छूट न जाए’ के नाम पर जब 4-5 बरस के बच्चों से लेकर 14-15 साल के बच्चों के समक्ष ऑनलाइन का विकल्प अपनाने को प्राथमिक बना दिया जाए, तो विज्ञान के शिक्षक द्वारा आंखों की संरचना पर दिए गए व्याख्यान बेमानी हो जाते हैं। आंखों की सुरक्षा पर डाॅक्टरों की सलाह बेकाम मालूम होने लगती है। स्थितियां ऐसी बन पड़ी हैं, कि विज्ञान के जो शिक्षक कल तक आंखों को प्रकाश की तेज चमक और मोबाइल व टीवी स्क्रीन से बचाने के उपाय बता रहे थे, वही शिक्षक विडियो क्लास में पढ़ाते नज़र आ रहे हैं।
मोबाइल और टीवी स्क्रीन मन और शरीर को थका देते हैं। बच्चों में इन उपकरणों का आदी बनने की प्रवृत्ति देखी गयी है। ऐसे में दो घण्टे की औपचारिक विडियो क्लास के लिए फाॅलोअप के तौर पर 2 से 4 घण्टे और मोबाइल के इस्तेमाल बाद के समय में बच्चे के बैक पेन (स्पाइनल कार्ड, कमर और पीठ दर्द) और स्पाॅन्डिलाटिस (गर्दन की हड्डियों में विकार) का कारण भी बन सकता है।
स्वास्थ्य विकार के इन संभावनाओं को नज़र अंदाज करके आॅनलाइन पढ़ाई का तरीका उचित नहीं है। ऐसा करना बच्चों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य हित में नहीं है। बच्चे देश का भविष्य हैं। यदि भविष्य का शरीर, मन और आंख से बीमार होगा, तो देश प्रगति और विकास की नई मंजिलें कैसे तय करेगा?
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि किसी आपात परिस्थिति में बाल शिक्षा में वैकल्पिक शिक्षा के तौर पर आॅनलाइन शिक्षा बेहतर विकल्प नहीं है। बच्चों के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, सामाजिक विकास में तकनीक का सीमित प्रयोग ही उचित है। आपात परिस्थिति में स्कूल बंद होने के कारण कोर्स पूरा कराने या शैक्षिक पिछड़ेपन की भरपाई के नाम पर डिजिटल तकनीक का बेलगाम इस्तेमाल बच्चों के साथ ज़्यादती है। इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि बच्चों के स्वास्थ्य सुरक्षा की कवायद के तौर पर तकनीक के बोझ तले उन्हें दबा न दिया जाए। यह किसी खेल के फाउल की तरह है। जो खेल के नियमों के खि़लाफ़ है। दर असल बच्चा बायोलाॅजिकल है। किसी भी बच्चे के साथ मनुष्य निर्मित तकनीक (या कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग) का प्रयोग करना तब तक ठीक नहीं है, जब तक कि वह बच्चा शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक और सामाजिक रूप से परिपक्व न हो जाए। इस बात का विशेष ध्यान रखना माता-पिता और शिक्षकों से कहीं अधिक नीति निर्माताओं का है। जिन्हें यह तय करने का दायित्व है, कि बच्चों की शिक्षा कैसे होनी चाहिए।
हो सकता है कि आने वाले समय में ऑनलाइन शिक्षा का मौजूदा प्रयोग व्यापक स्तर पर अध्ययन-अध्यापन की प्रक्रिया का स्थाई अंग बन जाए या बना दिया जाए। फिर भी कहना होगा कि बाल शिक्षा में यह प्रयोग कदापि उचित नहीं है। कोई भी समाज तकनीक के इस बोझ को उठाने की स्थिति में नहीं है। इस तरह का प्रयोग बाल शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं है। यह बच्चों के स्वास्थ्य हित में नहीं है। यह बड़ी संख्या में बच्चों को शिक्षा की मूल प्रक्रिया में शामिल होने से रोकता है। अखिल भारतीय शैक्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार निजीकरण के दो दशकों के बाद भी स्कूल जाने वाले बच्चों की निर्भरता सरकारी स्कूलों पर ही अधिक है। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा का फार्मूला नितान्त वैयक्तिक, निजी, एक खास तबके के बच्चों के लिए उपयोगी प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया से बाल जगत का बड़ा हिस्सा अछूता रहेगा। आने वाले समय में शैक्षिक खाई और बढ़ेगी। सरकार को ऐसी युक्ति पर विचार करना चाहिए, जिससे शिक्षा की मूल प्रक्रिया में अधिक से अधिक बच्चों को शामिल किया जा सके।