दृष्टिकोण

सीने में घाव लिए पिघलने को मजबूर ग्लेशियर और हिमशिखर, मानव विकास पर बलिहारी होती प्रकृति

Written by Reena Tripathi

समय का महतीप्रश्न प्रकृति का सतत विकास क्यों नहीं

चमोली के दामन में ग्लेशियर के पिघल का टूटने से धौलीगंगा और ऋषि गंगा के सैलाब में डूबे अनगिनत गांव और फंसे हजारों निर्दोष लोग सभ्यता और विकास की योजनाओं की बलि चढ़ने पर कराह रहे हैं।
तबाही को कुछ कम करने के लिए आनन-फानन अलकनंदा घाटी को खाली तो जरूर करा लिया गया परंतु पिछले कई वर्षों से अलकनंदा घाटी पर अनगिनत बिजली परियोजनाओं का जाल बिछाया जा रहा है ,पेड़ों को काटा जा रहा है ,पत्थरों के सीने को चीर कर पहाड़ों में सुरंग बनाई जा रही है , प्राकृतिक रूप से प्रबंध जल को बोतलों में भरकर बेचने का प्रयास जोरो पर है। नतीजन पहाड़ दरक रहे हैं और नदियां उफनाने को मजबूर हो रही है।

निश्चित रूप से यदि यह कहा जाए अथक प्रयास और तपस्या से लाई गई भागीरथी की जटाओं पर यदि इंसानी सेंध ना रोकी गई तो मानवता के लिए और मानव अस्तित्व के लिए पर्यावरण के साथ किया गया यह खिलवाड़ कहीं डायनासोर की तरह हमारे अस्तित्व को खत्म करने की वजह ना बन जाए।

जैसा कि हम सब जानते हैं उत्तराखंड की पूरी अर्थव्यवस्था पहाड़ों पर टिकी हुई है वहां पैदा होने वाली जड़ी बूटियां, जानवर, पशु पक्षी तथा लोग विषम परिस्थितियों में रहकर अपना जीवन यापन करते हैं आज विकास की अंधी दौड़ में और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के क्रम में हमने दो प्लेटों पर टिके हुए हिमालय को इतने घाव दे दिए हैं की पावर प्रोजेक्ट तथा अन्य योजनाओं के नाम पर स्टोन क्रशिंग, बारूद ब्लास्टिंग, तथा रोज कटने वाले पहाड़ों पर हो रही निर्दयता चल रही बड़ी-बड़ी मशीन से जख्मी होते पहाड़, लैंड स्लाइड तथा असमय गिरने पर मजबूर हो रहे हैं ।अंधाधुन हो रहे वृक्षों की कटाई जो कि सड़क और बुनियादी सुविधाओं के नाम पर रोज ही काटे जा रहे हैं जिनके जड़ों में शैलेंद्र की घटाएं उलझी हुई थी, बंधी हुई थी, मजबूती से धरती के साथ अपनी पकड़ बनाई हुई थी आज बिना पेड़ों के अपने अस्थिरता की दुहाई दे रहे हैं।जरा सी गतिविधि से भरभरा कर गिरने पर मजबूर हो रहे हैं।

हमारी सरकारें थोड़े से लाभ और विकास के नाम पर अंधाधुन योजनाओं को प्राइवेट सेक्टर के हाथ में देते हुए ,कौड़ियों के भाव जमीने पहाड़ों और नदियों को बेच रहे है। और इसी क्रम में आज हमारा हवा, मूलभूत आवश्यकता, सभी के लिए जरूरी पानी बिक चुका है पहाड़ी क्षेत्रों में 60 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं आपदा के क्षेत्र के आसपास ही संचालित है । पहाड़ आज कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक होते प्राकृतिक दोहन से कराह रहा है आज पहाड़ दुखी हैं नदियां अपने वेग को असमय रोके जाने से परेशान हैं ।प्रकृति मनुष्य द्वारा किए गए इस दोहन से स्तंभित है वह नहीं समझ पा रही है कि खुद को स्वतंत्र करें या मानव अस्तित्व के विनाश की ओर अपना कदम बढ़ाए।कब तक प्रकृति हमें सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ती रहेगी।

मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित है। प्रकृति एक विराट शरीर की तरह है। जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पहाड़ आदि उसके अंग-प्रत्यंग हैं। इनके परस्पर सहयोग से यह वृहद शरीर स्वस्थ और सन्तुलित है। जिस प्रकार मानव शरीर के किसी एक अंग में खराबी आ जाने से पूरे शरीर के कार्य में बाधा पड़ती है, उसी प्रकार प्रकृति के घटकों से छेड़छाड़ करने पर प्रकृति की व्यवस्था भी गड़बड़ा जाती है।

भारतीय दर्शन यह मानता है कि इस देह की रचना पर्यावरण के महत्त्वपूर्ण घटकों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही हुई है। इतिहास गवाह है मानव ने प्रकृति को पूजा है फिर वह समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं द्वारा उसे अपने संरक्षण में लेना, इसी तरह कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण इसके उदाहरण हैं। कृष्ण की गोवर्धन पर्वत की पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर करना सीखें।सदियों से चली आ रही गोवर्धन पूजा आज भी हमें पर्वत और हिमाद्री शिखरों की रक्षा की सीख दे जाता है। फिर चूक कहां हुई कि हम अपने सभ्यता और संस्कृति को भूल कर प्राकृतिक हत्या करने में लग गए।

प्राकृतिक पूजक भारत के इतिहास के पन्नों का अवलोकन करें तो प्रकृति का संरक्षण हमें विभिन्न रूपों में दिखाई देता है ।सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राज-चिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं। फिर आज हम क्यों अपने प्रकृति प्रेम को भूलते जा रहे हैं हमें नहीं पता सिंधु सभ्यता कैसे खत्म हुई अटकलों और विवादों के बीच.…. आज भी हम प्रकृति के सौम्य रूप से खिलवाड़ करने से पहले एक मिनट भी नहीं सोच रहे हैं।

वैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ हमारे लिये शान्तिप्रद हों ,वैदिक काल से चला आ रहा शांति मंत्र के सभी को शांति दे पाया। ये शान्तिप्रद तभी हो सकते हैं जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है, जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है।

प्रकृति में बिना रोक-टोक मानव का बढ़ता हस्तक्षेप वातावरण को प्रदूषित कर रहा है , प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अन्त दिखाई दे रहा है। हमें और हमारी सरकारों पर अपनी योजनाओं पर विचार करना आज समय की महती आवश्यकता बन गई है। क्या कागज में लिखे हुए सतत विकास की अवधारणा को हम चरितार्थ कर पा रहे हैं।आज भारत को सतत विकास की महती आवश्यकता है क्या इसे अक्षर से लागू करेंगी सरकारें?
निश्चित रूप से सतत विकास से हमारा अभिप्राय ऐसे विकास से है, जो हमारी भावी पीढ़ियों की अपनी जरूरतें पूरी करने की योग्यता को प्रभावित किए बिना वर्तमान समय की आवश्यकताएं पूरी करे। भारतीयों के लिए पर्यावरण संरक्षण, जो सतत विकास का अभिन्न अंग है, क्या इन शब्दों से सरकारी परियोजनाओं को पूरा करने वाले एजेंसियां गंभीरता से नहीं लेती ,यदि लेती होती तो फिर अंधाधुंध दोहन एक ही घाटी में सैकड़ों परियोजनाएं नदी के जल को बूंद बूंद निचोड़ कर बेचने की परिकल्पना क्या सही है।और यदि सही नहीं है तो इन्हें रोका क्यों नहीं जा रहा।

सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिए समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करना और विकास के तीनों पहलुओं, अर्थात सामाजिक समावेश, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है। आज हम उद्देश्यों से क्यों भटक गए?चूक कहां हो रही है क्यों मानव विकास की दौड़ में अंधा होता जा रहे हैं?
हम पृथ्वी को माता मानते है और उस में निर्मित आकृति शैलाभिदेहम को पिता की तरह पूजते हैं आज मानव का पालन करने वाली प्रकृति के प्रति हम इतने क्रूर क्यों होते जा रहे हैं अंधी दौड़ को क्या अब रोकने का समय नहीं आ गया?

सतत विकास सदैव हमारे दर्शन और विचारधारा का मूल सिद्धांत रहा है। सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक मोर्चों पर कार्य करते हुए हमें महात्मा गांधी की याद आती है, जिन्होंने हमें चेतावनी दी थी कि धरती प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकती है, पर प्रत्येक व्यक्ति के लालच को नहीं………….आज क्या हम लालच की पराकाष्ठा को पार करने पर विवश है ऐसी कौन सी मजबूरी है कि हम अपने विनाश की काली गाथा अपने ही हाथों लिखना चाह रहे हैं।

युगो से हमारे जीवन के तीनों बुनियादी आधार वायु, जल एवं मृदा आज खतरे में हैं। तरक्की और विकास के नाम पर जिंदगी में सुविधा को बढ़ाने के लिए हमने वह सब कुछ खतरे में डाल दिया जिसे प्रकृति ने हमें प्रदान किया था।

पर ध्यान रहे मौसम, प्रकृति और पहाड़ गुलामी बर्दाश्त नहीं करेंगे पहाड़ों पर भागीरथी जटाओं में सेंध लगाना मानव सभ्यता के लिए खतरनाक साबित होगाऔर प्रकृति के इस बलात्कार की सजा हमें उत्तर में खड़ा हिमालय जरूर देगा, चेतावनी स्वरूप दे भी रहा है शायद धौलीगंगा के भयंकर जल प्रवाह ने हमें चेतावनी स्वरूप यह दिखा भी दिया है। संभल जाओ अपने से हजार गुना बड़े डायनासोर आज कहीं अस्तित्व नहीं तो फिर मानव अस्तित्व मिटते देर न लगेगी…. प्रकृति की रौद्रता को जब 14 करोड़ वर्ष तक राज करने वाली विशालकाय डायनासोर की प्रजाति नहीं झेल पाई तो फिर मानव की औकात ही क्या है?

समय-समय पर पर्वतराज हिमालय ने हमें आगाह किया 1991 में उत्तरकाशी का भूकंप 1998 में मालपा भूकंप 1999 में चमोली भूकंप हो या फिर 2013 का केदारनाथ का तबाही वाला मंजर हो या फिर 2021ग्लेशियर के पिघलने और चमोली घाटी ऋषि गंगा और धौली गंगा का सैलाब।

प्रकृति किसी बड़े विनाश के पहले हमें चेतावनी जरूर है और यदि अभी भी हम ना सजग तो मानव का अस्तित्व यदि खत्म हो जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी, शायद यही प्रकृति का हमारे द्वारा उसके प्रति किए गए शोषण का प्रतिशोध होगा।

सभ्यता के विकास के शिखर पर बैठे मानव के जीवन में अंधाधुन विकास के खिलवाड़ ने वृक्षों के अभाव में प्राणवायु की शुद्धता और गुणवत्ता को घटा दिया है आज हम शुद्ध ऑक्सीजन के अभाव में दम घुटने को मजबूर खड़े हैं। पहाड़ों के बीच में पगडंडीया बनाकर खेती करके कुछ फसल उगाने वाले पहाड़ों की समृद्धि प्रचुर संपदा से जड़ी बूटियां निकालकर व्यापार करने वाले तथा नदियों में पानी के संसाधन बना कर जीवन यापन करने वाले पहाड़ के आम और निर्दोष मानव जाति को कब तक विकास और सभ्यता के उन्नत होने की बलि देनी होगी।

विकास के नाम पर पहाड़ों में निरन्तर वन कटाई के कारण भूमि की ऊपरी परत की मिट्टी वर्षा के साथ बह-बहकर समुद्र में जा रही है। इसके कारण बाँधों की उम्र कम हो रही है, नदियों में गाद जमा होने के कारण जरा सा भी बहुत भयंकर बाढ़ का रूप ले लेते हैं। आज समूचे विश्व में हो रहे विकास ने प्रकृति के सम्मुख अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर दी है। और इन सभी गतिविधियों का खामियाजा इन्हीं पहाड़ी जनमानस, पशु- पक्षी को देखना होता है।

आज पूरी मानव सभ्यता को यह सोचने की जरूरत है कि क्या हम प्रकृति के दोहन को इतना सीमित नहीं कर सकते कि अपनी जरूरतों को पूरा करने मात्र ही प्रकृति का शोषण करें ।कुछ ऐसा करें कि आने वाली पीढ़ी भी प्राकृतिक नजारों प्राकृतिक संतुलन और प्रकृति की मिठास को उपभोग कर सके ।

क्या ऐसा सार्थक नहीं किया जा सकता कि पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन का एक मॉडल तैयार किया जा सके ???निश्चित रूप से विकास सुखदाई है ,आराम तलबी की ओर ले जाने वाला है विभिन्न सुख-सुविधाओं को कंप्यूटर और एक कमरे में कैद करने वाला है पर क्या इन सब की कीमत हमें प्राकृतिक छेड़छाड़ करके ही पूरी करनी होगी।

उत्तराखंड की वादियों में हजारों जल विद्युत परियोजनाएं ,हजारों बांध बनाए जा रहे हैं अभी हाल ही में कुछ माह पूर्व ही ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना शुरू हुई थी । निजी हाथों के व्यापारियों को सौंप दी गई।हमारी साइंस और टेक्नोलॉजी इतनी बढ़ गई है कि हम सेटेलाइट से हर एक उस पल का पता लगा सकते हैं जो हमारे इर्द-गिर्द हो रहा है फिर सूचना तंत्र कहां पर फेल हुआ कि इतने बड़े पिघलते हुए ग्लेशियर जो कि पानी में तब्दील हो रहा था उस खामोशी को सेटेलाइट द्वारा नहीं भाप पाए या फिर निजी व्यापारियों के लाभ के लिए जानकारियां छुपाई गई और आंखें बंद की गई।

क्यों हमारे नीति निर्माता ,हमारी सरकारें हादसों से सबक नहीं लेती? क्यों आम आदमी का जीवन इतना सस्ता हो गया है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे विधजनों के आंख से एक आंसू भी उनके लिए नहीं निकलता। जनता के कीमती वोट से सत्ता के गलियारों में पहुंचे हुए राजनीतिज्ञ क्यों इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता……. प्रकृति को निरंतर बेचने और उसका व्यापार करने में लाभ लालच और अपने सरकारों के हित में क्या धृतराष्ट्र बनना बंद नहीं किया जा सकता।
हर बार हादसे का इंतजार करते हम क्यों सतर्क नहीं हो रहे?? क्यों हमारी सरकारें कुछ सीमित मुद्दों के सिवा एक स्पष्ट रणनीति बनाकर प्रकृति को संरक्षण प्रदान नहीं कर रही? क्यों अर्थ के इस युग में आर्थिक लाभ के लिए प्रकृति को मारा जा रहा है ?विचार करें आज अगर मानव नहीं जगा तो शायद मानव के अस्तित्व की कहानियां लिखने वाला भी कोई नहीं होगा।
प्रकृति को नीलाम करने से रोकना होगा छोटे-छोटे आंदोलन छोटी-छोटी विरोध सभा और हमारे और आपके सोचने से शायद कुछ नहीं होने वाला इसके लिए जरूरी है नीति निर्माता नींद से जागे और आमजन की रक्षा करें ताकि फिर कोई नया हादसा हजारों कुर्बानियां लेने के लिए मुंह पसारे ना खड़ा रहे।
आइए प्रकृति को बचाएं।
कुछ क्षण रुककर विचार करें………

 

 

 

 

रीना त्रिपाठी

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Reena Tripathi

(Reporter)

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