राष्ट्रीय व्यवसाय

एसबीआई को छोड़ सभी बैंक जा सकते हैं निजी हाथों में, क्या कह रहा वायस ऑफ बैंकिंग

Written by Vaarta Desk

देश की आजादी के 75 वर्षों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्षों के बाद सरकार बैंकों के निजीकरण की राह पर

देश की आजादी के 75 वर्षों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्षों के बाद आज कहा जा रहा है कि सरकार को भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर सभी पब्लिक सेक्टर के बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (NCAER) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दशक के दौरान एसबीआई को छोड़कर अधिकांश सरकारी बैंक, प्राइवेट बैंकों से पिछड़ गए हैं। NCAER की पूनम गुप्ता और अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया द्वारा लिखित रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकारी बैंकों ने अपने प्राइवेट सेक्टर के बैंकों की तुलना में संपत्ति और इक्विटी पर कम रिटर्न प्राप्त किया है। सरकार आने वाले दिनों में बैंकिंग संशोधन बिल भी लाने की योजना बना रही है, इस बिल के द्वारा सरकार बैंकों में अपना हिस्सा 26% तक कम करेगी बैंकों का नियंत्रण अपने हाथ में रखेगी । सरकार बाकी बचे बैंकों को एक बार फिर मर्ज करके इनकी संख्या कम करने के बार में भी सोच रही है ।

देश की आजादी के 75 वर्षों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्षों के बाद आज सरकारी बैंकों की संख्या घटकर 12 रह गई है। 19 जुलाई 1969 को देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया था। साल 1969 के बाद 1980 में पुनः 6 बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। 19 जुलाई 2022 को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 53 वर्ष पूरे हो जायेंगे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया। उधर, बैंक ऑफ़ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ, इधर, भारतीय रिज़र्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी। फिर 1955 में इम्पीरियल बैंक, जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ कहलाया, सरकारी बैंक बन गया।


आजादी के बाद कमर्शियल बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे। 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रूपया डूब गया था। उधर, कुछ बैंक काला बाज़ारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके।
19 जुलाई 1969 को देश के 14 प्रमुख बैंकों का पहली बार राष्ट्रीयकरण किया गया था और वर्ष 1980 में पुनः 6 बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक़ जुलाई 1969 को देश में इन बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं। 2022 के आते आते यह आंकड़ा लगभग 88 हजार का हो गया। देश के विकास में इन राष्ट्रीयकृत बैंकों की अहम भूमिका रही और इन बैंकों ने कृषि, उद्योग, सड़क, बिजली, टेलिकॉम, शिक्षा, रियल एस्टेट सभी के विकास के लिये बैंकों ने भरपूर सहयोग किया है। डी.आर.आई. जेसे छोटे ऋणों से लेकर बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स के लिय ऋण की व्यवस्था की।

वर्ष 1980 में बेंकिंग में कंप्यूटर की आवश्यकता महसूस हुई और 1988 में रिजर्व बैंक ने डा. रंगराजन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसने बैंकों में कंप्यूटर लगाने की सिफारिश की और 1993 में बैंकों में कंप्यूटर लगाने के लिए सहमति बनी और बैंकों में कंप्यूटर लगने शुरू हो गये और समय के साथ साथ उनमे बदलाव होता गया और आज कंप्यूटर के बिना बैंकिंग संभव ही नहीं लगती। हालाँकि कंप्यूटर से बैकिंग तो आसान और 24 घंटे उपलब्ध हो पाई लेकिन इसके कारण बैंकों में रोजगार की संभावनाएं कम हो गईं।
1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला जिसमें और छह निजी बैंकों को सरकारी कब्ज़े में लिया गया। इसके विपरीत 1994 में नये प्राइवेट बैंकों का युग प्रारम्भ हुआ। आज देश में 8 न्यू प्राइवेट जनरेशन बैंक, 14 ओल्ड जनरेशन प्राइवेट बैंक, 11 स्माल फाइनेंस बैंक और 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक काम कर रहे हैं। 2018 में सरकार ने इण्डिया पोस्ट पेमेंट बैंक की स्थापना की जिसका मकसद पोस्ट ऑफिस के नेटवर्क का इस्तेमाल करके बेंकिंग को गाँव गाँव तक पहुंचना था । इसके साथ साथ और कई प्राइवेट पेमेंट बैंकों की भी शुरुआत हुई ।
यदि कुल मिलाकर देखा जाये तो ये बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनैतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरूपयोग किया। जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बेठे थे उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया। बैंक यूनियंस के जो नेता बोर्ड में शामिल हुए उन्होंने भी बैंक कर्मचारियों का ध्यान न करते हुए बोर्ड मेम्बेर्स की साजिश में शामिल हो गये।

2014 में मोदी सरकार के आने के बाद बैंकों से जुड़े फैसले जनधन खाते खोलना, मुद्रा लोन, प्रधान मंत्री बीमा योजना, अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना आदि सभी योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों ने उत्साह से किया है। सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके दिखाया। देश के सरकारी तन्त्र की कोई भी इकाई (सेना को छोड़कर) 36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया।

1991 के आर्थिक संकट के उपरान्त बैंकिंग क्षेत्र के सुधार के दृष्टि से जून 1991 में एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में नरसिंहम् समिति अथवा वित्तीय क्षेत्रीय सुधार समिति की स्थापना की गई जिसने अपनी संस्तुतियां दिसंबर 1991 में प्रस्तुत की। नरसिंहम समिति द्वितीय की स्थापना 1998 में हुई। इसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये व्यापक स्वायत्तता प्रस्तावित की गई थी। समिति ने बड़े भारतीय बैंकों के विलय के लिये भी सिफारिश की थी। इसी समिति ने नए निजी बैंकों को खोलने का सुझाव दिया जिसके आधार पर 1993 में सरकार ने इसकी अनुमति प्रदान की। भारतीय रिजर्व बैंक की देखरेख में बैंक के बोर्ड को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने की सलाह भी नरसिंहम् समिति ने दी थी।

सरकारी बैंकों का पहला विलय 1993 में न्यू बैंक ऑफ़ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में हुआ। नरसिंहम् समिति की सिफारशों पर कार्यवाही करते हुए केन्द्र सरकार ने सबसे पहले 2008 में स्टेट बैंक ऑफ़ सौराष्ट्र, 2010 में स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर और 2017 में बाकि पांच एसोसिएट बैंकों का स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में विलय करने के बाद 2019 में तीन बैंकों, बैंक ऑफ़ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक का विलय तथा 1 अप्रैल 2020 से 6 बैंक सिंडीकेट बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, कारपोरेशन बैंक और आंध्रा बैंक का विलय कर दिया है ।

इसके बाद वर्तमान में सरकारी क्षेत्र के 12 बैंक रह गये हैं । सरकार का कहना है की आज के समय में छोटे छोटे बैंकों की आवश्यकता नहीं है बल्कि 6 से 7 बड़े बैंकों की आवश्यकता है क्योंकि ज्यादा बैंक होने से आपस में ही प्रतिस्पर्धा के कारण टिक नहीं पा रहे हैं और एन.पी.ए. से निपटने में भी नाकाम हो रहे हैं। सरकार के लिए भी इन बैंकों को पूंजी जुटाने में भी दिक्कत हो रही है।

बैंकों के निजीकरण से जहाँ सरकार को पैसा तो मिल जायेगा लेकिन इन बैंकों का कंट्रोल निजी हाथों में चला जाएगा। निजीकरण के बाद सरकार की विभिन योजनाओं को भी ये निजी बैंक लागू करने में प्राथमिकता नहीं देंगे । वहीँ ग्राहकों के लिए भी ज्यादा सर्विस चार्जेस की मार पड़ेगी और अभी एम.एस.एम.इ. , कृषि क्षेत्र और लघु उद्योगों को आसानी से मिल रहे ऋण में भी मुश्किल होगी । निजी बैंकों के प्रबंधन घाटे में चल रही ब्रांचों को बंद करेंगे, जिससे नये रोजगार के अवसर भी कम हो जायेंगे । वैसे भी निजी बैंकों में ज्यादातर कर्मचारी ठेके पर काम करते हैं । निजी बैंकों में ट्रेड युनियन बनाने का अधिकार नहीं है। कुल मिलकर निजीकरण से सरकार, ग्राहक और कर्मचारियों को नुकसान ही होगा ।

पहले से निजी क्षेत्र में चल रहे बैंकों के इतिहास और उनकी कार्य प्रणाली के कारण, आये दिन कुछ न कुछ गड़बड़ियां और घोटालों को देखते हुए सरकार का सरकारी क्षेत्र के बैंकों को निजी हाथों में सोंपना उचित नहीं रहेगा । बैंकों के विलय के कारण बैंकों की शाखाओं को बंद किया जा रहा है, कर्मचारियों की संख्या में कमी आई है। बैंकों में नई भर्ती न के बराबर है, इसके कारण ग्राहक सेवा प्रभावित होती है और बैंक कर्मचारियों पर काम का ज्यादा दबाव रहता है ।

ये सही है कि आज के इस युग में सरकारी क्षेत्र के बैंकों में व्यापक स्तर पर सुधार की आवश्यकता है जिसके लिए सरकार को इस प्रक्रिया में बैंकिंग उद्योग के हित में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों, अन्य स्टैक होल्डर्स और बैंकों की ट्रेड यूनियनों को भी शामिल किया जाना चाहिए तथा निजीकरण को छोडकर अन्य तरीकों पर विचार किया जाना चाहिए।

अशवनी राणा
फाउंडर
वॉयस ऑफ बैंकिंग

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