जिस तरह पूरा देश कोरोना महामारी के भयावह संकट से जूझ रहा है उससे देश का ऐसा कोई वर्ग नहीं बचा है जो प्रभावित न हुआ हो। हालांकि केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें सरकारी खजाने से खासकर समाज के कमजोर वर्गो के लोगों की अपने-अपने ढंग से मदद की है व कर रही हैं। उनकी मदद के लिये नगद धनराशि भी उनके खातों में डाली जा रही हैं। अब तक यह राशि हजारों करोड़ तक जा पहुंची है।
इसी तरह सरकारें उद्योगों के लिये भी सब्सिडी, ब्याज में छूट व सस्ते कर्ज से लेकर नाना प्रकार की सुविधायें मुहैया करा रही हैं। इनसे भी सरकारों के खजानों पर भारी बोझ पड़ रहा है। हालत यह आ गई है कि केन्द्र सरकार ने जहां मंत्रियों, सांसदों के वेतन में ३० फ ीसदी कि कटौती कर दी है वहीं उनकी सांसद निधि को भी दो वर्षो तक के लिये स्थगित कर दिया है।
सरकारी सूत्रों के मुताबिक जहां सांसदों (लोकसभा व राज्य सभा सदस्य) के वेतन में ३० फ ीसदी कटौती से प्रतिमाह दो करोड़ ३४ लाख की बचत होगी वहीं सांसद निधि के स्थगित होने से लगभग ७९ सौ करोड़ रुपये की बचत होगी। इस प्रकार देखा जाय तो साल में यह बचत करोड़ों के आंकड़े पार कर जायेगी।
निश्चित ही लोकसभा जिसे संसद का निचला सदन कहा जाता है देश के लिये अनिवार्य है पर संसद के उच्च सदन राज्य सभा की उपयोगिता को लेकर इधर अर्से से सवाल उठाये जाते रहें हैं। यही कारण है बीच-बीच में इसे भंग किये जाने की मांग भी की जाती रही है।
ज्ञात रहे देश के तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने अगस्त २०१५ में जब राज्य सभा भंग करने की नहीं सिर्फ उसकी शक्तियों पर पुर्न विचार करने की जरूरत जतायी थी तो हंगामा मच गया था।
खैर अब यही उपयुक्त अवसर है जब केन्द्र सरकार इस सदन को सदा के लिये समाप्त करने की निर्णायक पहल करें। वास्तव में ढाई सौ सदस्यों वाली राज्य सभा जो ब्रिटिश संसद की तर्ज पर गठित हुई है इसके सदस्यों का कार्यकाल छ: वर्षो का होता है और इसके १२ सदस्यों का मनोनयन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।
राज्य सभा राजनीतिक दलों के लिये अपने चहेतों को सत्ता सुख भोग करवाने का एक सरल माध्यम बन गई है। जिन १२ सदस्यों का मनोनयन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है वे अप्रत्यक्षत: सरकारों द्वारा ही उपकृत होते हैं। और अब तो राज्य सभा सदस्य बनने के लिये बड़े लेन-देन के आरोप लगना आम बात हो गई है।
राज्य सभा देश के अनेक प्रधानमंत्रियों के लिये लोकसभा चुनाव न लडऩे के एक शानदार विकल्प के रूप में भी सामने आ चुकी है। इनमें डॉक्टर मनमोहन सिंह ने तो पूरे दस वर्षो तक यानी अपने पूरे कार्यकाल को राज्य सभा के सदस्य के रूप में ही गुजार दिये थे।
ऐसे में उन पर अथवा बिना चुनाव लड़े अन्य प्रधानमंत्रियों पर यह आरोप लगते रहे हंै कि वे चोर दरवाजे से प्रधानमंत्री बने है और वे देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
कौन नहीं जानता कि सरकारें जब भी कोई नया कानून बनाती है तो उसे संसद के दोनो सदनों में पारित कराना होता है। ऐसे में यदि सरकार का राज्य सभा में बहुमत नहीं होता तो उसे भारी संकट का सामना करना पड़ता है। ऐसे ही संकट के दौर से पहले कार्यकाल में मोदी सरकार को गुजरना पड़ा था। तात्पर्य यह है कि राज्य सभा एक प्रकार से पूर्ण बहुमत की सरकार की राह में सिर्फ रोड़े अटकाने का ही काम करती है जबतक उसे राज्य सभा में भी पूर्ण बहुमत न प्राप्त हो।
जहां तक राज्य सभा के सदस्यों के वेतन भत्ते पर खर्च का सवाल है तो एक आरटीआई के जवाब में दी गई जानकारी के अनुसार वित्तीय वर्ष २०१४-१५ से लेकर २०१७-१८ यानी तीन वर्षो में राज्य सभा सदस्यों को कुल ४.४३ अरब रुपये का भुगतान किया गया था यानी प्रतिवर्ष लगभग १.४८ अरब रुपये।
ज्ञात रहे राज्य सभा सदस्यों को प्रतिवर्ष वेतन भत्ते आदि के मद में ४४.३३ लाख रुपये प्रदान किये जाते हैं तो प्रश्न उठना लाजिमी है कि इतने भारी भरकम खर्च का क्या औचित्य है।
राज्य सभा की तरह विधान परिषदों को भी समय और धन की बर्बादी का कारण माना जाता है। जो विधान परिषदें भंग करने के पक्ष में है उनका कहना है कि समाज के अलग-अलग वर्ग के सदस्यों के नाम पर राजनीतिक दल अपने अधिक से अधिक कार्यकर्ताओं को सरकार में लाने के लिये इस सदन का प्रयोग करते रहे हैं। यही नहीं जिन सदस्यों को नामित किया जाता है उनके पीछे भी सरकार की कृपा दृष्टि ही होती है। अब तो ऐसे आरोप सामान्य हो गये हैं कि विधान सभा सदस्य बनने के लिये मोटी रकम खर्च करनी होती है। यह भी कि यदि कोई बिना विधान सभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसे विधान परिषद का सदस्य बन जाने से चुनाव लडऩे की बाध्यता ही खत्म हो जाती है। वो चाहे तो विधान सभा का चुनाव लड़े और चाहे न लड़े। इस प्रकार देखा जाय तो विधान परिषदें एक प्रकार से राजनीतिक दलों के लिये सत्ता सुख भोगने का एक सरल माध्यम भर है। इनको भंग कर देने से भी जहां सम्बन्धित राज्यों को प्रतिवर्ष करोड़ों की बचत होगी वहीं देश को भी प्रतिवर्ष हजारों करोड़ की बचत हो सकेगी।
वैसे तो कभी भी देश के सभी राज्यों में विधान परिषदें नहीं रही हैं पर जिनमें थी उनमें से भी अब तक अनेक राज्यों से उन्हे खत्म किया जा चुका है। १९६९ में पंजाब और पश्चिम बंगाल तथा १९८६ में तामिलनाडु राज्य की विधान परिषदें खत्म की जा चुकी हैं। इसी तरह १९८५ में आंध्र प्रदेश की भी विधान परिषद भंग कर दी गई थी पर २००७ में उसे पुन: गठित किया गया था। समय की बात देखिये कि वर्तमान जगन मोहन रेड्डी सरकार ने अब एक बार पुन: विधान परिषद खत्म करने की पहल शुरू कर दी है। देखना है नतीजा क्या होता है।
इस प्रकार यदि यह भंग हो जाती है तो देश में सिर्फ छ: राज्यों में ही विधान परिषदें शेष रह जायेगी इनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है।