दृष्टिकोण लाइफस्टाइल

अंतिम राख रूपी फूलों को, मानवता के पाप धोने को, बचनबद्ध मां गंगा अब इतनी लाशों का क्या करें ??

Written by Reena Tripathi

अपने आंचल में फैले हजारों दफन रंग-बिरंगे कफन देख असमंजस में मां गंगा

प्रयागराज से आप सबका विशेष लगाओ रहा होगा, कुंभ नगरी के प्रसिद्ध रेतीले घाट उन सब में फाफामऊ , नारायणीघाट,रसूलाबाद घाट और गंगा के संगम के तट के घाट…. इत्यादि।

राजा सगर के पुत्रों को कई युगों पहले तारने हेतु अवतरित हुई *मां गंगा

कलयुग में कई हजार गुनी ज्यादा अपने तट पर दफन लाशें, देखकर घोर वेदना को महसूस कर रही होंगी……… मां गंगा राख हो चुकी सगर पुत्रों को तो मोक्षदेकर स्वर्ग पहुंचा सकती हैं पर सशरीर दफन की गई लाशें जो महामारी का शिकार हुई , सरकार की निर्दयता,अव्यवस्थाओं के बोझ से दबी हुई अपनों की विवशता से खामोश हो ….उन्हें कहां तक अपने सीने में छुपा ले।

कलयुग में हमने अपने उत्पत्ति स्थल से लेकर मैदानी इलाकों पर मां गंगा को इतनी जगह बांध दिया है कि शायद ना तो अब उनके अंदर इतनी शक्ति बची है और ना ही इन महामारी के शिकार हजारों लाखों पार्थिव शरीरों को अपने आंचल में छुपा लेने की ताकत। मां की वेदना को कलयुग के मानव क्या समझ पाएंगे। आत्मा वेदना में स्वर्ग पहुंचा देने की इच्छा शक्ति को तार-तार कर ही दिया होगा। आज गंगा के तटों में कुत्ते और अन्य जानवर लाशों को नोच नोच कर खा रहे हैं और यहसब तमाशा देख रही हैं खामोश अशोक पूर्ण नैनों से मां गंगा……… प्राकृतिक प्रलय में वह किया हजारों लाशों को सागर तक पहुंचाने की ताकत रखने वाली मां गंगा आज अपने ही किनारों में दफन अपने हजारों पुत्रों को देखने को विवश और लाचार।

हम भारत के वासी सनातन धर्म के पालन जन्म से मृत्यु तक अपने जीवन को 16 संस्कार में व्यतीत करते हैं। पर विगत कुछ दिनों पहले ही हम सब ने जो हृदय विदारक दृश्य देखा तो वाकई आत्मा तक छलनी हो गई। परिस्थितियों में मनुष्य इतना विवश हो गया कि उसने मृत्यु के संस्कार को जैसे तैसे लाशों को घरों से बाहर निकाल कर गंगा जी के तटों को सौंप दिया।
कारण आर्थिक एपिडेमिक जो भी रहा हो पर संवेदनाएं और संस्कार तो आहत हुई हैं।

गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीने की बून्दों से गंगा का निर्माण किया तथा पृथ्वी पर आते समय शिवजी ने गंगा को अपने शिर जटाओं में रखा। त्रिमूर्ति के तीनों सदस्यों के स्पर्श के कारण यह पवित्र समझा गया। अपने सभी शुद्धीकरण कार्यक्रमों में गंगाजल को सर माथे पर लगाना हम अपना सौभाग्य समझते हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार राजा सगर ने जादुई रूप से साठ हजार पुत्रों की प्राप्ति की। एक दिन राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिए एक अश्ववमेघ नामक यज्ञ किया। यज्ञ के लिए घोड़ा आवश्यक था जो ईर्ष्यालु इन्द्र ने चुरा लिया था। सगर ने अपने सारे पुत्रों को घोड़े की खोज में भेज दिया अन्त में उन्हें घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि कपिल मुनि के समीप बँधा था। सगर के पुत्रों ने यह सोचकर कि ऋषि ही घोड़े के गायब होने की वजह हैं, उन्होंने ऋषि का अपमान किया। तपस्या में लीन ऋषि ने हजारों वर्ष बाद अपनी आँखें खोली और उनके क्रोध से सगर के सभी साठ हजार पुत्र जलकर वहीं भस्म हो गए। सगर के पुत्रों की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगीं क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी।

भगीरथ के अथक प्रयास से और घोर तपस्या से कुछ परिवर्तन आया उन्होंने और जग्गू उतारने वाली मां गंगा पृथ्वीलोक को मिली। जिससे उनके अंतिम संस्कार कर, राख को गंगाजल में प्रवाहित किया जा सके और भटकती आत्माएँ स्वर्ग में जा सकें। ब्रह्मा प्रसन्न हुए और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिए तैयार हुए और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति सम्भव हो सके।भगवान शिव से निवेदन किया और उन्होंने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोककर, एक लट खोल दी, जिससे गंगा की अविरल धारा पृथ्वी पर प्रवाहित हुई। वह धारा भगीरथ के पीछे-पीछे गंगा-सागर संगम तक गई, जहाँ सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ। साथ ही पृथ्वी मेहमानों को मोक्ष और उसके पापों से मुक्ति देने का आश्वासन भागीरथ को मां गंगा ने दिया। और सदियों से हम सनातनी मां गंगा की गोद में ही अंतिम मोक्ष का प्रयास करने पहुंचते रहें।

बहुत से पवित्र तीर्थस्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हुए हैं, जिनमें वाराणसी, हरिद्वार और प्रयागराज उत्तरकाशी प्रमुख हैं। और हम कुंभ के रूप में गंगा के तटों पर एकत्र होकर अपनी मुक्ति की प्रार्थना करते हैं।

यह मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पापों का नाश हो जाता है। मरने के बाद लोग गंगा में राख विसर्जित करना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक समझते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग गंगा के किनारे ही प्राण विसर्जन या अंतिम संस्कार की इच्छा भी रखते हैं वाराणसी के तट हमने ऐसे लोगों को इंतजार में जीवन व्यतीत करते दिख जाते हैं।

मनुष्य की पीढ़ियों को तारने का संकल्प लेकर अवतरित हुई मां गंगा अपनी संतान और मनु के वंशजों को इस प्रकार मुस्लिम परंपरा की तरह जमीन में सर शरीर दफन देखकर खुद ही हृदय से तार तार हो रही होंगी । पर हम उनके आंसू देखने के लायक भी नहीं।

मनुष्यता पर लगा करोना महामारी का श्राप और सरकारों की अव्यवस्थाओं का खामियाजा एक बार फिर कभी मनुष्य जाति से कुछ ना लेने वाली ,अपने बच्चों की तरह सिर्फ जीवन में उत्साह, उमंग और मरने के बाद स्वर्ग का रास्ता देने वाली मां गंगा विद्वलित होकर पूछ रही हैं कि, “मैं कहां ले जाऊं इन अतृप्त लाशों और इनकी आत्माओं को”……. मुझे तो संस्कार के बाद बची हुई राख रूपी अस्थियो को तारने का वचन था आज मैं इन बिना संस्कार हुए शरीरों को कहां छुपा लूं

…….सदियों से मां के रूप में मनुष्यता के पाप को धोती रही हूं ।हर गलती के बाद मनुष्य को माफ करती रही पर अब इनके सड़ते हुए शरीरों की दुर्गंध को कहां तक अनदेखा कर सकूं मेरे तटों में कहां तक बालू के भरोसे और कब तक सोते रहेंगे यह अस्थि पंजर। कब तक मांस के लो दोनों को कुत्तों और जंगली जानवर से नाचते हुए देती रहूंगी।

माना गंगाजल को पवित्र समझा जाता है तथा समस्त संस्कारों में उसका होना आवश्यक है। पंचामृत में भी गंगाजल को एक अमृत माना गया है। गंगाजल में पाया जाने वाला बैक्टीरियोफेज नामक बैक्टीरिया कभी गंगा जी के पानी को सड़ने नहीं देता उसे साधारण जल ना बनाकर विशिष्टता प्रदान करता है। पर कल्पना करिए जब हजारों की संख्या में गंगा जी की रेत में दफन लाशें बरसात में छोटी-छोटी गड्ढों से जरा सी बारिश से निकलकर गंगा जी में करेंगी और जो तैर रही हैं वह सडेगी तो उन संक्रमित शरीरों के विष से क्या आप और हम बच पाएंगे????

अनजाने में ही सही क्या हमने किसी दूसरी महामारी को दावत नहीं दे दी। गंगा जी में पाई जाने वाली हजारों मछलियां जीव जंतु सड़े हुए शरीरों को खाएंगे जिनके अंदर कोरोना वायरस था और इन जीव जंतुओं को खाने वाले लोग मछलियों का उपयोग करेंगे और आप उनसे क्या अपेक्षा करेंगे कि वह सब स्वस्थ रहेंगे।

वाकई आज यदि विभिन्न नदियों के किनारे बने हुए पुलों से नीचे झांका जाए तो हमें लाल और पीले कपड़ों के रूप में छोटे-छोटे गड्ढों में दफन लाशें नंगी आंखों से कई हजारों किलोमीटर तक दिख जाएंगी ।यह कौन सी और कैसी मजबूरी थी कि हम अपने सगो को अंतिम विदाई भी ढंग से ना दे सके?? ऐसी कौन सी विषम परिस्थितियां थी कि घाट तक ले जाकर हम उन्हें संस्कारों से विदा भी ना कर सके?? भारत की सनातनी परंपरा में बच्चों को छोड़कर शायद ही कभी किसी अपने की लाश को किसी ने दफनाया होगा मुस्लिम परंपरा से सीख लेते हुए कहें या घाट तक लाने के बाद आर्थिक मजबूरियों के कारण कुंटल लकड़ी ना जुटा पाने की व्यवस्था करें कि हमने अपनों को गंगा माता के सहारे उनके तटों पर चिर निद्रा में सोने के लिए छोड़ दिया। क्योंकि दफनाना सनातन धर्म की परंपरा नहीं है तो शायद हमें दफनाना भी सलीके से आया नहीं।

माना कि गंगा माता के दर्शन से ही मुक्ति मिल जाती है तो जिन लोगों ने अपने परिजनों को आर्थिक मजबूरी कहें या समय की कमी एल आई हुई लाशों को वापस घर नहीं ले जाया जाता की मजबूरी …के कारण गंगा मैया के किनारे यह गंगा मैया के जल में अपनों को छोड़ दिया क्या यह मानवता की निर्मम हत्या का उदाहरण नहीं है??

सामान्य दिनों में से दो हजार में अंतिम संस्कार हो जाते थे अब इसी क्रिया के लिए पैतालीस से पचास हज़ार मांगे गए.. क्या इतना पैसा लेकर लोग श्मशान घाट जाते हैं ऐसी स्थिति में परिजन क्या करते हैं उनके पास अपने प्रिय को दो हाथ का गड्ढा खोदकर दफनाने के सिवा कोई चारा न था। अंतिम संस्कार के लिए इतनी मोटी रकम।

वाकई यह शर्मसार कर देने वाली बात नहीं है कि आम मतदाताओं सेहिंदू धर्म के नाम पर वर्तमान सरकारों ने वोट मांगे और आज वही लोग इतने मजबूर हो गए कि उनके पास अंतिम संस्कार में जलाने के लिए लकड़ी तक नहीं मुहैया हो पाई।

केंद्र और राज्य की सरकार सनातन धर्म और हिंदुत्व को सबसे ज्यादा प्रश्रय देने का दावा किया करती थी क्या यह सब दावे खोखले थे? क्या ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती थी कि मानवता की इस प्रकार हत्या न की जाती है। और सर समय मृत्यु के आंकड़े छुपाने की जगह सुविधाएं मुहैया कराई जाती है ताकि आज इस दुर्दशा पर मां गंगा को रोना न पड़ता।

देश में राजतंत्र में राज्य करने वाली सभी सरकारों ने एक विभाग बना रखा है आपदा प्रबंधन। बचपन से हम पढ़ते आ रहे हैं कि आपदा प्रबंधन में हर वर्ष एक ऐसा बजट रखा जाता है कि यदि कोई अचानक आपदा आ जाए तो हम उसके लिए अपने जनमानस की मदद और जीवन की रक्षा कर सकें। रक्षा और सुरक्षा के लिए करोड़ों रुपए का बजट क्या सिर्फ दिखावा है यह सरकारी तंत्रों की बंदरबांट का एक तरीका।

लाख कह देने पर कि हमारे यहां कोरोना महामारी में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं है, सारी सुविधाएं हैं अस्पतालों में बैड हैं ,समय पर दवाई मिल रही है, समय पर डॉक्टर मिल रहे हैं समय पर सभी चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं।क्या यह बयान बाजी ही काफी है या इन सब को झूठलाते हुए दफन सैकड़ों हजारों लाशें सत्यता को बताने के लिए काफी है। ……………….

अक्सर आने वाली बाढ, बांधों के टूटने, प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका में लाशों का बहना एक प्राकृतिक मजबूरी है मां गंगा ने कितने बार मानवता को विकराल रूप दिखाकर जीवन प्रदान किया है पर इतनी खामोशी से अपने तटों में लाशों के चादर बिछा देखना कैसी विवशता…………………….

शायद युगों में भी ऐसा नहीं हुआ कि गंगा मां ने अपने तटों को इतने रंग-बिरंगे कपड़ों से पटा हुआ देखा हो। सभ्यता और संस्कृति की बात करने वाले हम मूक दर्शक…..

हम सबको खुशहाली देने वाली अपने तटों को फसलों से भर देने वाली ,मां गंगा ,मोक्ष का रास्ता दिखाने वाली मां गंगा भी आज इतनी विवश हो गई है कि इतनी लाशों को अपने अंदर समेटने की ताकत खो चुकी है शायद इस ताकत को खो देने का कारण भी हम मनुष्य ही हैं और हमारी सरकारें हैं। पर अफसोस मानवता पर आए इस संकट और अपनों को खोने के दर्द को जब हम ना समझ सके तो मां गंगा के दर्द को क्या समझें और समझना भी नहीं चाहिए मनुष्य द्वारा पैदा की गई इस अनियमितता और इस महामारी की जिम्मेदारी भी मनुष्यता को ही लेनी होगी?????

काश आसुओं से नाकामी विफलताओं और जनमानस की हत्या के दाग धुल सकते……… फिर भी हम कहते हैं कि हम सनातनी हैं सभ्यता और संस्कृति के पुरोधा हैं।।
……..कब तक………

गांव की मजबूरी, शहर का समय अभाव वाला काल और सरकार की अव्यवस्था……… और सिसकती मां गंगा

रीना

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Reena Tripathi

(Reporter)

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