स्वतंत्र भारत में पहले आम चुनाव 1952 में हुए थे, लेकिन डॉ राममनोहर लोहिया 1963 तक सांसद नहीं थे। लेकिन वह विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता थे। शब्दों में उनकी टिप्पणियां कभी-कभार व्यक्तिगत आक्षेप दिखती थीं। लेकिन,सार्वजनिक जीवन का हर शख्स जानता समझता था कि उनका विरोध सैद्धांतिक होता था व्यक्तिगत नहीं।
1962में डॉ राममनोहर लोहिया ने फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में पं. जवाहर लाल नेहरू को चुनौती दी। लेकिन हार गए। 1963में फर्रुखाबाद लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर लोहिया पहली बार सांसद बने। सामाजिक आर्थिक विषमता के मुद्दे पर पिछड़ावाद के प्रणेता तो वह थे ही,’तीन आना बनाम तेरह आना’ की उनकी टिप्पणी ने सत्ता पक्ष को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के लिए बाध्य किया था।
लोहिया ने व्यावहारिक और तात्कालिक राजनीति के लिए गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया,तो व्यापक संदर्भों में सप्त क्रांति की परिकल्पना की,जिसे निम्नवत शब्दबद्ध किया जा सकता है-
- नर-नारी की समानता के लिए।
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चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरुद्ध।
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संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के ख़िलाफ़ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए।
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परदेसी ग़ुलामी के ख़िलाफ़ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए।
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निजी पूँजी की विषमताओं के ख़िलाफ़ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए।
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निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ और लोकतंत्री पद्धति के लिए।
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अस्त्र-शस्त्र के ख़िलाफ़ और सत्याग्रह के लिये।
लोहिया जीवंत, जाग्रत लोकतंत्र में सजग, सचेत,सक्रिय नागरिक की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे।वह कहते थे-जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण लोहिया के परम मित्रों में थे। दोनों ने साथ-साथ मिलकर अपनी वैज्ञानिक समाजवादी विचारधारा को किसानों-मजदूरों, छात्रों- युवाओं, बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों के समाजवादी आंदोलन में रूपांतरित किया था।1974-77के दौरान जब जेपी लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे,तो उन्होंने लोहिया के सप्त क्रांति को अपने संपूर्ण क्रांति में विस्तार दिया।
जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं-लोहिया के कथन को प्रतिनिधि वापसी के अधिकार की मांग के रूप में प्रतिध्वनित किया। बिहार के छात्र-युवा आंदोलन का नेतृत्व जेपी ने अप्रैल,74 में ग्रहण किया और इसे एक व्यापक जनांदोलन का स्वरूप दिया।इसके पहले गुजरात में छात्र-युवा आंदोलन हो चुका था।
दिसंबर 1973 में गुजरात में चिमन भाई पटेल कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के हॉस्टल खर्च में एकबारगी 20%की वृद्धि के खिलाफ छात्रों ने आंदोलन शुरू किया।यह आंदोलन गुजरात में कालेज-दर-कालेज, शहर-दर-शहर विस्तृत होता गया और नवनिर्माण आंदोलन का विस्तार पा गया। चिमनभाई पटेल मुख्यमंत्री की हैसियत से इसको ठीक से नियंत्रित नहीं कर पाए।नतीजा,कई छात्र-युवा आंदोलनकारियों पर लाठी-गोली चली, गिरफ्तारियां हुई।80से ज्यादा लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए,3000से ज्यादा लोग घायल हुए, हजारों लोगों ने गिरफ्तारियां दीं।पहले चिमनभाई पटेल सरकार के इस्तीफे की मांग हुई और बाद में गुजरात विधानसभा भंग करने की मांग ने जोर पकड़ लिया।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 9फरवरी,1974को चिमनभाई पटेल का इस्तीफा लेकर राष्ट्रपति शासन तो लागू कर दिया लेकिन विधानसभा भंग नहीं किया।विपक्षी दलों के विधायकों ने विधानसभा भंग करने की नवनिर्माण आंदोलन की मांग के समर्थन में विधायकी से इस्तीफा का सिलसिला शुरू कर दिया।यही नहीं, विधानसभा भंग करने की मांग के समर्थन में 12मार्च,1974 से मोरारजी देसाई ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का तर्क था कि आंदोलनों की मांग पर विधानसभाओं को भंग करने की व्यवस्था संविधान में नहीं है। जनांदोलन की मांग पर गुजरात विधानसभा भंग करने का तात्पर्य होगा-राष्ट्रीय स्तर पर हर प्रदेश में ऐसी मांगों को आमंत्रित करना। लेकिन,मोरारजी देसाई सहित नवनिर्माण आंदोलन के आंदोलनकारियों का तर्क था कि गुजरात विधानसभा अब जनभावना और जनाकांक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करती-इसलिए इसे भंग किया ही जाना चाहिए।
12मार्च से आमरण अनशन पर बैठे मोरारजी देसाई की मांग ने राष्ट्रव्यापी ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक ध्यान आकर्षित किया था और इंदिरा गांधी सार्वजनिक आलोचना की शिकार हुईं अंततोगत्वा 15मार्च ,1974 को केन्द्र सरकार ने गुजरात विधानसभा को भंग करने का निर्णय लिया और इंदिराजी ने अपने हाथों से मोरारजी देसाई को संतरे का रस पिलाकर उनका आमरण अनशन तुड़वाया। लेकिन,यह कहने से नहीं चूकीं कि नवनिर्माण आंदोलन की मांग संविधान सम्मत नहीं है और भविष्य में कई सांवैधानिक संकटों को आमंत्रित करेगा।…और,यह भी कि केन्द्र सरकार का यह फैसला वरिष्ठ गांधीवादी मोरारजी देसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति है। केन्द्र सरकार इस तथ्य को मानती और समझती है कि मांग न माने जाने पर मोरारजी देसाई आमरण अनशन तोड़ने से रहे,वह मृत्यु का वरण ही करते।
यहां,यह याद करना प्रासंगिक होगा कि एम ओ मथाई ने अपनी पुस्तक में मोरारजी देसाई के व्यक्तित्व पर टिप्पणी करते हुए लिखा-आप कुतुबमीनार के छत पर गांधी टोपी रख दीजिए, मोरारजी देसाई को वैसा ही अडिग समझ लीजिए,अपनी बात से टस से मस नहीं हो सकते।
गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के दबाव में 15मार्च,1974को गुजरात विधानसभा भंग किए जाने के बाद बिहार के छात्र-युवाओं ने नारा बुलंद किया था- गुजरात की जीत हमारी है,
अब बिहार की बारी है।
18मार्च,1974को प्रारंभ हुए छात्र-युवा आंदोलन के प्रारंभिक चरण में लोकनायक जयप्रकाश नारायण आंदोलन में कहीं थे नहीं।8अप्रैल,1974को 1000विशिष्ट नागरिकों के मौन जुलूस का नेतृत्व कर जेपी आंदोलन में शामिल हुए थे।आंदोलन के आरंभिक चरण में न तो तत्कालीन प्रदेश सरकार निशाने पर थी और न विधानसभा।12अप्रैल,1974को गया में हुए पुलिस गोलीकांड के बाद सबसे पहले महामाया बाबू ने विधायकी और कांग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा दिया था।उसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की सरकार को बर्खास्त किए जाने और बिहार विधानसभा को भंग किए जाने की मांग उठी थी। आंदोलन के समर्थन में कुछ विपक्षी विधायकों ने इस्तीफे की पेशकश की थी। लेकिन, कुछ विपक्षी विधायकों की राय थी कि विपक्षी विधायकों के रहने पर सदन में आंदोलन के स्वर गूंजते हैं। लेकिन, धीरे-धीरे यह राय मजबूत होती गई कि आमराय में इस्तीफा नहीं देना विपक्षी विधायकों की सत्तालोलुपता के रूप में परिभाषित की जा रही है।फिर तो विपक्षी विधायकों के पास विकल्पहीनता की स्थिति थी और तकरीबन सभी विपक्षी विधायकों ने विधायकी छोड़ दी थी।
…..इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आइए, वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में विपक्ष की भूमिका का अध्ययन,आकलन, विश्लेषण और पूर्वानुमान करें।
हमारी सांवैधानिक व्यवस्था है कि बहुमत प्राप्त दल या गठबंधन का नेता प्रधानमंत्री बनता है। उसी प्रकार 10% सांसदों का समर्थन प्राप्त दल या गठबंधन के नेता को नेता-प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। लोकसभा में कांग्रेस के 52 या 54 सदस्य हैं। 2-3 विरोधी सांसदों का समर्थन प्राप्त कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन, सत्ताधारी भाजपा अड़ी हुई है कि चूंकि कांग्रेस के 55 सदस्य नहीं हैं, इसलिए कांग्रेस संसदीय दल के नेता को कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त नेता-प्रतिपक्ष नहीं बनाया जाएगा। मतलब, सत्ताधारी भाजपा विधायिका के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं रखती।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अपनी टिप्पणियों में कह चुके हैं कि नौकरशाह कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं करते, आवश्यक सहयोग नहीं करते।स्पष्टत:, कार्यपालिका और न्यायपालिका में एक अभूतपूर्व टकराहट की स्थिति है।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ-मीडिया-के मेनस्ट्रीम से सम्मानित बुद्धिजीवियों, पत्रकारों ने एक दूरी बना ली है।मेनस्ट्रीम मीडिया में रीढ़विहीन, भौतिकवादी, सुरा-सुंदरी के उपासकों की भीड़ है।
पेगासस जासूसी कांड हो,किसान आंदोलन हो,दलित उत्पीड़न का मामला हो,कोरोना के संदर्भ में कुप्रबंधन का मसला हो,मंहगाई,बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के ध्वस्त हो जाने का मामला हो-सरकार लगातार तथ्य और आंकड़े छुपा रही है,संसद,मीडिया और आमलोगों को गुमराह कर रही है।
ऐसे में,विरोधी दलों को सांसदों को मिलने वाले वेतन,भत्ता एवं अन्य सुविधाओं के लोभ,मोह और लोलुपता से बचना चाहिए।अब कम से कम उन्हें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि सांसद रहते हुए वह जनहित की रक्षा,सुरक्षा और संवर्धन कर पाएंगे।अभी तक संसद के निकट ही जंतर-मंतर पर किसान-संसद चल रही है और विरोधी दल के सांसद लोकसभा/राज्यसभा की बैठकों का वहिष्कार करते हुए लोकसभा/राज्यसभा के परिसर के बाहर जन-संसद का आयोजन कर रहे हैं।विपक्षी सांसदों को लोकसभा/राज्यसभा से इस्तीफा देकर वर्तमान लोकसभा को भंग कर नया जनादेश प्राप्त करने हेतु जनांदोलन को सुदृढ़ता और स्थायित्व प्रदान करना चाहिए।
पंकज कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार
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