—————————————-जबरिया रिटायर आईपीएस अमिताभ ठाकुरने योगी आदित्यनाथके विरुद्ध विधानसभा चुनाव लड़नेकी घोषणा की है।अमिताभ ठाकुरकी घोषणा इस अनुमान पर आधारित है कि भाजपा आलाकमानने घोषणा की है कि उत्तरप्रदेशका हर बड़ा नेता चुनाव लड़ेगा।एक अनुमान के अनुसार योगी आदित्यनाथ अयोध्या या गोरखपुर से चुनाव लड़ेंगे।इस संदर्भ में,अमिताभ ठाकुर ने भी अयोध्या और गोरखपुर से अपनी तैयारी शुरू कर दी है।लेकिन,अमिताभ ठाकुर राजनीतिके थोड़े-से दांव-पेंच नहीं जानते-समझते।
1963में कांग्रेसके भीतर एक धड़ा नेहरूके बाद इंदिरा को आगे करना चाहता था।सो,एक कामराज योजना लाई गई और सत्ता- प्रशासनके सभी नामचीन चेहरों को संगठन में सक्रिय करने के बहाने राजनैतिक परिदृश्य से हटाया गया।अभी,भाजपाके भीतर मोदी बनाम योगी का अन्तर्द्वन्द्व जारी है।संभव है, भाजपा आलाकमान इस संभावना की तलाशमें हों कि चुनाव के बाद भाजपाको बहुमत तो मिल जाए,लेकिन योगी हार जाएं या उनके हारने की मुकम्मल व्यवस्था कर दी जाए,तब योगी आदित्यनाथ भावी मुख्यमंत्रीके लिए अपना दावा स्वत: छोड़नेको बाध्य होंगे।भाजपा प.बंगाल में ममता बनर्जी वाला प्रयोग तो दुहराएगी नहीं,कि नंदीग्राम में चुनाव हारने के बाद भी ममता मुख्यमंत्री हैं।लेकिन,यह भी तो संभव है कि योगीका ध्यान बिहार द्वारा प्रस्तुत मिसाल की ओर जाए,नीतीश कुमार विधान पार्षद हैं, विधायक नहीं-वह चुनाव अभियानका नेतृत्व करते हैं, लेकिन खुद लड़ते नहीं।योगी भी अभी विधान पार्षद हैं,और चुनाव लड़ना उनकी बाध्यता नहीं है।संभव है, भाजपा आलाकमानकी कूटनीति भांपकर वह चुनाव ही न लड़ें।तब अमिताभ ठाकुर क्या करेंगे?इसीलिए, सार्वजनिक राजनीतिमें व्यक्तिगत निष्ठा या प्रतिशोध की कोई जगह नहीं है।
इस संदर्भ में दो मजेदार वाकया 1988 और 89का है।अमिताभ बच्चन द्वारा लोकसभाकी सदस्यतासे इस्तीफा देने के कारण खाली हुई सीट इलाहाबाद में उप-चुनाव होने थे।विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधीके केन्द्रीय मंत्रिमंडलमें वित्त मंत्री और रक्षामंत्री रहने के बाद मंत्रीमंडल,लोकसभा की सदस्यता और कांग्रेसकी प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देकर बोफोर्स का मुद्दा उठाकर राजीव गांधीको कटघरेमें खड़ा कर रहे थे।उन्होंने घोषणा की-वह इलाहाबाद से उप-चुनाव लड़ेंगे।किसी पत्रकारने सूचित किया-वहां से कांग्रेसके टिकट पर लालबहादुर शास्त्रीके सुपुत्र सुनील शास्त्री लड़ने वाले हैं।वीपी सिंहने लालबहादुर शास्त्रीके परिवारसे अपनी आत्मीयताका उल्लेख करते हुए कहा- लालबहादुर शास्त्रीके अभिभावकत्व और मार्गदर्शनमें ही उन्होंने सार्वजनिक राजनीतिका ककहरा सीखा है, ललिता शास्त्री उनके लिए माता-तुल्य हैं,लालबहादुर शास्त्री के दोनों पुत्र-सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री उनके लिए अनुज-समान हैं और अगर सुनील शास्त्रीने इलाहाबादसे चुनाव लड़ा,तो वह नहीं लड़ेंगे। कांग्रेस आलाकमानने सुनील शास्त्रीकी उम्मीदवारी की घोषणा तबतक नहीं की,जबतक वीपी सिंहने नामांकन नहीं दायर कर दिया।वीपी सिंहके नामांकन दायर करने के बाद सुनील शास्त्रीकी उम्मीदवारीकी घोषणा की गई और सुनील शास्त्रीने भी नामांकन दाखिल किया।कुछ लोग,जो वीपी सिंहको नैतिकताकी प्रतिमूर्ति समझते थे, वह उम्मीद लगाए रहे कि वीपी सिंह नैतिकताके आधार पर अपना नामांकन वापस ले लेंगे,लेकिन ऐसे लोगोंको निराशा हाथ लगी।यही नहीं,1989 के आमचुनाव में वीपी सिंहने लालबहादुर शास्त्रीके दूसरे बेटे अनिल शास्त्रीके खिलाफ फतेहपुरमें चुनाव लड़ा और जीता।वस्तुत:,शास्त्रीजीके परिवारसे अपनी आत्मीयता बताकर वह अपने व्यक्तित्वकी मार्केटिंग कर रहे थे।
इसलिए,अमिताभ ठाकुरके लिए व्यावहारिक यही होगा कि वह योगी आदित्यनाथसे व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना से उबरें।इस देशको इस या उस नेताका नहीं, इस या उस पार्टीका नहीं पूरी राजनैतिक संस्कृति के विकल्पकी तलाश है।यह विकल्प खड़ा करनेकी विनम्र कोशिश उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022से की जा सकती है।वैसे भी उत्तरप्रदेश अभी राजनैतिक शून्यता के दौरसे गुजर रहा है।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2017में भाजपा तीन चौथाई सीटें जीतकर भले आई हो,लेकिन यही परिणाम दुहराना असंभव है।2017में समाजवादी पार्टी के भीतर पारिवारिक कलह की सजा उत्तरप्रदेशकी जनता ने कुछ ऐसा दिया कि समाजवादी पार्टी 47सीटों पर सिमट गई।अभी तो भाजपा के भीतर मोदी बनाम योगी और आरएसएस बनाम गोरखनाथ पीठ जैसे अन्तर्द्वन्द्व जारी हैं।भाजपा का सबसे सशक्त विकल्प पेश करने का दावा अखिलेश यादव और उनकी पार्टी-समाजवादी पार्टी-का है।
समाजवादी पार्टी का सबसे सकारात्मक पक्ष अखिलेश यादव का उच्च शिक्षा प्राप्त टेक्नोक्रेट होना और अत्यन्त सभ्य, सुसंस्कृत,शालीन होना है।वह कभी भी शब्दोंकी मर्यादा का परित्याग नहीं करते,ऐक्ट करते हैं-रिऐक्ट नहीं करते। लेकिन नकारात्मक यह है कि पिछड़ावाद के लिए उत्तरप्रदेश में राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह ने जो कुछ जोता बोया,उसे 1990के दशक से मंडलवाद के नाम पर यह पार्टी फसल काटती रही है।मुलायम सिंह यादव पिछड़ोंके मसीहा भले बनते हों,सेक्यूलरवाद के नाम मुसलमानों का उनको समर्थन भी मिलता हो, लेकिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव रहे हों या अखिलेश यादव-सत्ता का लाभ यादव जाति को ही मिलता रहा है,गैर-यादव पिछड़ा और मुस्लिम सत्ताके लाभसे वंचित ही रहा है।
सबसे मजेदार पक्ष यह है कि श्रीराम मंदिर निर्माण ट्रस्ट द्वारा किए गए घोटालों के उजागर होने के बाद भाजपा साम्प्रदायिकता का जहर घोलने के लिए किसी अन्य प्रतीकों का सहारा भले ले,श्रीराममंदिर निर्माणको चुनावी विमर्शमें लाने की स्थिति में नहीं है।भाजपा खुद ही पिछड़ावाद का राग अलाप रही है,जबकि 2017में केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाने का वादा करके भी उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया।पिछड़ावाद अगर चुनावी मुद्दा बनता है,तो भाजपा समाजवादी पार्टी से आगे जाने का सोच भी नहीं सकती।
मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी 2007-12 तक सत्ता में भले रही हो,आज वह रेस से बाहर हैं।नागरिकता संशोधन कानून और धारा 370पर जिस प्रकार बसपाने भाजपाका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग किया है,उससे मायावतीकी राजनीतिक साख धराशाही हुई है।दूसरी तरफ,मोदीराजमें सीबीआई और आईबीके संभावित कार्यवाहियोंसे मायावती आतंकित और आशंकित रहीं हैं।लालू प्रसाद वाली जीवटता उनमें है नहीं।2012-17के दौरान बेशक वह सत्तामें नहीं थी, लेकिन अखिलेशने उनके विरुद्ध कोई प्रतिशोधात्मक प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की थी।भाजपासे बदला लेने का उनके पास सुनहरा अवसर यह है कि वह गैर- भाजपा वोटोंको समाजवादी पार्टीके पक्षमें ध्रुवीकृत होने दें और भाजपाकी हार सुनिश्चित करें।मायावतीकी राजनीतिक अ-सक्रियता उनकी इसी रणनीतिका हिस्सा दीख रहा है।
भाजपाको शिकस्त देनेके लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव,2020में आम आदमी पार्टी और प.बंगाल विधानसभा चुनाव,2021में तृणमूल कांग्रेसको कांग्रेस ने रणनीतिक तौर पर अघोषित वाक-ओवर दिया।संभव है, उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022में भी वह यही अघोषित रणनीति अपनाए।
अगर,अमिताभ ठाकुर और उनकी मंडलीने 300साफ- सुथरे छविवाले राजनैतिक रूपसे जीवंत,जाग्रत,सजग, सचेत नागरिकोंकी पहचानकर सड़ी-गली राजनैतिक संस्कृतिका व्यावहारिक विकल्प खड़ा करनेकी कोशिश की तो वह एक नया इतिहास रचेंगे।आम आदमी पार्टी या अरविंद केजरीवाल ने जब दिल्ली में वैकल्पिक राजनीति का दावा ठोका,तो सभी राजनैतिक पार्टियां धूल चाटती नजर आईं।18जनवरी,1977को जब इंदिरा गांधीने आमचुनावकी घोषणा की थी,तो विपक्ष जीर्ण- शीर्ण हालतमें था और महज दो महीने में लोकनायक जयप्रकाश नारायणने विपक्षमें प्राण फूंके थे।चुनाव के पूर्व तो वैधानिक रूप से जनता पार्टी वजूद में भी नहीं आ पाई थी।प्रस्तावित जनता पार्टीके सभी उम्मीदवार तकनीकी तौर पर भारतीय लोक दल के टिकट और चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ें थे।1977की वोट क्रांति की तुलना में महज उत्तरप्रदेश में वैकल्पिक राजनीति का मॉडल खड़ा करने के लिए पर्याप्त समय है।
पंकज कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार
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