ये हमारा स्वर्णिम भारत विश्व में अपनी ओजपूर्ण छवि रखता है,हर ओर इसकी एतिहासिक गाथाओं का गुणगान किया जाता है |हर क्षेत्र में अग्रणी बनने को प्रयत्नरत और सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम इसे सदियों से देख रहे हैं, किन्तु लैंगिक असमानता की सोच से यह आज भी उबर नहीं पा रहा |
जी हाँ ! औपचारिक प्रयास, सामाजिक संस्थाओं की निरंतर की जाने वाली गतिविधियाँ, कई तरह के बड़े-बड़े प्रोग्राम, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की नारेबाजी और न जाने कितनी अनवरत कोशिशें ! ये सब खोखली सी प्रतीत होती हैं हमारी भीतरी सोच के आगे | भारत में गाँव में बसने वाले लोग हों या शहरी, आज भी बेटियों की सुरक्षा को लेकर माता-पिता को चिंता सताती है |समय के साथ थोड़ा-बहुत अंतर तो दिखाई देता है जैसे – परिवारों में हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए लड़के-लड़की में समानता बनाए रखने का प्रयास, खाने-पीने, कपड़ों,पढ़ाई,
घर में कोई-न-कोई उसे हर वक्त हिदायत देता रहेगा – ‘ऐसे मत करो, ज़्यादा देर तक क्यों सोना है, थोड़ा-बहुत घर का काम भी आना चाहिए, अरे कुछ कर लो, कल को पराए घर जाना है,यहाँ तो सब चल रहा है वहाँ कोई नहीं सुनेगा !’ ऐसा-वैसा बस कुछ-न-कुछ हिदायतें उसे मिलती ही रहती हैं |
ऊपर से घर की दहलीज़ पार करते ही उसको यह एहसास कराया जाता है कि वह पुरुष से कमजोर है, उसे संभलकर रहना चाहिए | ‘ज़्यादा किसी से फालतू नहीं बोलना, बेकार में लोग बातें बनाते हैं |’ ऐसी न जाने कितनी बातें इतनी तरक्की के बाद भी कचोटती हैं |पुरुष को हर क्षेत्र में मानसिक तौर पर सबलता क्यों मिलती है घर-परिवार और समाज से ? कितनी बार वो अपनी मनमानी करता है | इतिहास गवाह तो था ही नारियों पर हुए अत्याचारों को हमने पढ़ा और कितने समाज सुधारकों ने समय-समय प्रयास किए बदलाव लाने के लिए, कई बदलाव आए भी सही पर मानसिक तौर पर पूर्णत: नहीं | आज भी वर्तमान शिक्षित परिवेश भी निरंतर अपनी ऐसे ओछी सोच से आज भी उबर नहीं पा रहा |संविधान में बेशक लिखित रूप से यह भिन्नता समाप्त हो गई हो पर हमारी सोच से कभी न ये पूर्णत: गई थी और न ही जा पा रही है, क्योंकि समाज हमसे ही तो है और हम ही कहते और करते हैं ये भेद-भाव !
हजारों गलतियों के बाद भी पुरुष को उसका परिवार स्वीकार कर लेता है | बचपन से लेकर बड़े होने तक, विवाह पूर्व और उपरांत वह चाहे जैसे संबंध किसी से भी रखे, चाहे बड़े-से-बड़ा अपराध क्यों न हुआ हो उससे ! पर स्त्री यदि बचपन से लेकर बड़े होने तक, विवाहपूर्व-विवाह पश्चात सबकुछ बहुत सेवा, श्रद्धा से करती जाए किन्तु किसी कारण वश यदि वह अपनी तरक्की, अपनी किसी भी बात को ऊपर रखे और परिवार,समाज से जायज हक के लिए संघर्ष करे तो सबकी नज़रें एकदम उसके लिए बदल जाती हैं | यही सबसे बड़ी विडम्बना है भारतीय समाज की अगर उसकी ज़िंदगी त्याग के घेरे के भीतर घूमती है तो वो महान है हर रिश्ते के लिए, और जैसे ही उसने इस घेरे से बाहर निकलना चाहा तो समाज और परिवार के लिए उसका नज़रिया बस शर्मनाक ही कहलाता है |
संभलिए और इन औपचारिकताओं से बाहर निकलकर कभी अपने तो कभी उसके मन की सोचिए और उसकी स्वतन्त्रता का आदर यदि घर में किया जाने लगेगा तो समाज अपने-आप ही बदल जाएगा क्योंकि हमसे ही समाज है |
बंद कीजिए ये सोचना कि पुरुष अगर कुछ भी नाजायज करे या नाजायज संबंध रखे तो दुनिया बातें नहीं बनाएगी और स्त्री यदि तिरस्कार पाती है,अपने रिश्तों में त्याग और प्रेम की मूर्ति बनकर तो उसे भी पुरुष के समकक्ष अपनी खुशी के लिए लड़ने, आगे बढ्ने और सम्मान न मिलने पर स्वतंत्र सोच से अपनी ज़िंदगी जीने का समान अधिकार इस समाज को देना ही चाहिए | पुरुष को भी एक स्त्री के मान का हनन करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए और खुद को उसकी जगह रखकर कल्पना करनी चाहिए कि कितनी दर्दनाक है लैंगिक भिन्नता की यह छोटी सोच !!
भावना अरोड़ा ‘मिलन’
अध्यापिका, लेखिका एवं विचारक
कालकाजी, नई दिल्ली
You must be logged in to post a comment.