दृष्टिकोण

मोदी युग: समाप्ति की ओर :- पंकज कुमार श्रीवास्तव

Written by Vaarta Desk

15अगस्त,1947को मुल्कको आजादी मिलनेके पहले देशके सबसे पुराने राजनैतिक संगठन कांग्रेसका स्वर्णिम युग तब रहा,जब मौलाना अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू या सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस रहे।जब ये तीनों पहली बार अध्यक्ष चुने गए,तो अपनी उम्रके 40वर्ष के आसपास थे,सार्वजनिक राजनीतिके लिए युवावस्था में थे।

1942क्रांति के आसपास यह तय हो चुका था कि आजादी मिलनेके बाद देशकी बागडोर जवाहरलाल नेहरू ही संभालेंगे।भावी प्रधानमंत्री के तौर पर ढेर सारे लोगोंकी पहली पसंद जवाहरलाल नेहरू नहीं, सरदार बल्लभभाई पटेल थे।लेकिन,बल्लभभाई पटेलकी तुलनामें जवाहरलाल नेहरूको तरजीह दिए जाने की खास वजह उनका अपेक्षाकृत युवा होना था।सरदार बल्लभभाई पटेल उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बने।पटेल जवाहरलालसे उम्रमें 14साल बड़े थे,इस कारण नेहरू को अभिभावकीय झिड़की भी देते रहते थे,उनको माननीय प्रधानमंत्री का व्यक्तिगत सम्मान नहीं देते थे, ‘तुम’संबोधनसे बुलाते थे।गांधीजीका यह ऐतिहासिक निर्णय सही साबित हुआ।आजाद हिन्दुस्तानमें सरदार पटेल बमुश्किल 3वर्ष रह पाए,जबकि नेहरूने डेढ़ दशकसे ज्यादा समय तक देशका नेतृत्व किया।

1952में हुए पहले आम चुनावके बाद नेहरू निर्विवाद रूपसे प्रधानमंत्री बने,लेकिन तब उनकी उम्र 63वर्ष हो चुकी थी।1947में देशमें औसत जीवन प्रत्याशा महज 32वर्ष थी और सरकारी सेवासे सेवानिवृत्तिकी उम्र 55 वर्ष थी।इस लिहाजसे,पहले आमचुनावके बाद प्रधानमंत्रीका पद संभालते समय वह 63वर्षकी परिपक्वता तक पहुंच चुके थे।सो बुद्धिजीवियोंने 1953 -54में ही सर खपाना शुरू कर दिया था-नेहरूके बाद कौन?

1954में नेहरूने ही इसका ज़बाब ढूंढ़ लिया था-मेरे बाद जेपी।स्वतंत्रता-संग्रामके दौरान वर्षों तक जेपी आनन्द भवन,इलाहाबादमें रहकर नेहरूके सचिवकी भूमिका निभा चुके थे,किसी दूसरेकी अपेक्षा नेहरू उनपर ज्यादा भरोसा करते थे।जेपीकी दूसरी खासियत वैचारिक दृष्टिकोणसे उनकी सुस्पष्टता,दृढ़ता और साफगोई थी।वह नेहरूके सामने अपनी बात दृढ़तापूर्वक रख सकते थे।

नेहरूकी त्रासदी थी कि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों में सब ‘हां-हुजूर’प्रकृतिके थे।कोई साफगोईसे अपनी बात नहीं रखते थे।नेहरूके ज़बाबने राजनैतिक तूफान खड़ाकर दिया।जेपी मंत्रीमंडल कौन कहे,कांग्रेस पार्टीमें भी नहीं थे।नेहरू मंत्रिमंडलके तमाम सहयोगियोंको ही नहीं,कांग्रेस पार्टीके अन्यान्य नेताओंको आपत्ति थी कि अपना वारिस नेहरू कांग्रेसमें नहीं,सोशलिस्ट पार्टीमें देख रहे थे।सोशलिस्ट पार्टीमें बवाल हुआ-जेपी की पार्टीगत निष्ठा संदेहास्पद है।

‘नेहरू के बाद-कौन?’-सवालने स्थानीय बुद्धिजीवियों को ही नहीं,अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवियोंको भी व्यस्त रखा। प्रसिद्ध पत्रकार वेलेस हैंगेन ने एक पुस्तक लिखी,जो बहुचर्चित हुई-आफ्टर नेहरू हू?लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारीलाल नन्दा,मोरारजी देसाई,के.कामराज,वीके कृष्णमेनन,यूएन ढेबर,एसके पाटिल सहित अनेक नामों और उनके दावों की चर्चाके बीच 27मई,1964को नेहरूने महाप्रयाण किया और प्रधानमंत्री की कुर्सी लगभग डेढ़ वर्ष तक शास्त्रीजीके पास रही।ताशकंदमें शास्त्रीजी के असामयिक निधनके बाद यह कुर्सी इंदिराजीने संभाली।

1971में विरोधियोंने इंदिराजीकी कुर्सी हिलाने की पुरजोर कोशिश की।लेकिन,इंदिराजीने सवाल उछाला- विरोधी कहते हैं,इंदिरा हटाओ,मैं कहती हूं,गरीबी हटाओ।आम अवामने गरीबी हटानेको प्राथमिकता दी।
1977में इंदिराजीके सामने स्वयं लोकनायक जयप्रकाश नारायण आ डटे।इंदिराजी और कांग्रेसने सवाल उछाला-प्रधानमंत्री कौन बनेगा?लेकिन,आम-अवामने इंदिरा जी की नहीं सुनी।चुनावके पहले तय नहीं था, लेकिन चुनावके बाद मोरारजी देसाईका चेहरा सामने आया।

1977में इंदिराजी अपदस्थ भले हो गई,लेकिन विरोधी सत्ता संचालन ढंगसे नहीं कर पाए।महज तीन सालके भीतर इंदिराजी एक बार पुनः प्रधानमंत्रीकी कुर्सी पर जा बिराजीं।31अक्तूबर,1984को अपनी ही सुरक्षागार्ड की गोलियोंकी शिकार हुई इंदिराजी।नि:शब्द,अवाक और स्तब्ध आम-अवाम जबतक कुछ समझे-बूझे, तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंहने अगले प्रधानमंत्री के रूपमें राजीव गांधीको शपथ दिलाई थी।तबतक,राजीव गांधी का सार्वजनिक योगदान कुछ भी नहीं था,इसलिए उनकी राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता होनेकी कोई संभावना ही नहीं थी।लेकिन,इंदिराजीकी हत्याके कारण उपजी सहानुभूति लहरमें 1984में राजीव गांधी के नेतृत्वमें कांग्रेसको जितनी सीटें मिली,उतनी सीटें अभी तक किसी पार्टीको कभी नहीं मिली।

1989में वीपी सिंहने राजीव गांधीको अपदस्थ तो कर दिया,लेकिन प्रधानमंत्रीकी कुर्सी नहीं संभाल पाए।1991में प्रधानमंत्रीकी कुर्सी एकबार फिर कांग्रेस पार्टी के पास चली गई,लेकिन इस कुर्सी पर विराजमान होने के लिए राजीव गांधी नहीं थे।अचानक,पीवी नरसिंहराव का चेहरा उभरा।

लगभग 40साल तक विपक्षकी नुमाइंदगी करनेके बाद 1998में अटलबिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री बने और 2004तक प्रधानमंत्री रहे।2004के आमचुनावमें अटलजीको चुनौती सोनिया गांधी दे रही थी।अटलजी और सोनियाजीके सार्वजनिक योगदानकी कोई तुलना ही नहीं थी,हर सर्वे,हर ओपिनियन पोल भाजपा की जीत सुनिश्चित बता रहा था।लेकिन,भाजपाकी हार हुई।

2004में चुनाव परिणाम आने के बाद यूपीए गठबंधन का स्वरूप सामने आया और अप्रत्याशित रूप से डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री चुने गए और वह दो कार्यकाल तक प्रधानमंत्री बने रहे।

2014के आमचुनाव के समय मोदीने आरएसएसके सामने खुदको हिंदू हृदयसम्राटके रूपमें प्रस्तुत किया तो पूरे देशके सामने खुदको विकासपुरूष घोषित किया।गुजरातके लोगोंमें वैसे भी उद्यमशीलता कूट-कूट कर भरी है,प्रति व्यक्ति आयमें वह वैसे भी अन्य प्रदेशोंसे आगे है,लेकिन मोदीने अपने मार्केटिंग स्किलसे यह स्थापित किया कि गुजरातके विकासकी पटकथा सिर्फ उन्होंने लिखी है,वह एक बेहतरीन’सपनों के सौदागर’साबित हुए।मोदी के पास तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहको निरूत्तर कर देनेवाले सवालोंकी झड़ी थी तो,गुजराती थैलीशाहोंकी बैकिंग भी थी।भीड़में जोश भर देनेका संवाद कौशल था,तो दूसरी तरफ फेसबुक/ट्विटर पर काम करनेवाले आईटी विशेषज्ञोंकी फौज थी।

2014के आमचुनावमें मोदीकी बदौलत न सिर्फ राजग को बल्कि अकेले भाजपा को भी लोकसभा में बहुमत मिला और मोदीजी प्रधानमंत्री बने।मोदीजीने प्रधानमंत्री बनते ही आकलन कर लिया कि भविष्यमें उनको सिर्फ एक ही पार्टी-कांग्रेस-से गंभीर चुनौती मिलनेकी संभावना या आशंका है।शेष सारे क्षेत्रीय दल हैं,वह सब अलग-अलग लड़कर बहुमत जुटाने भर सीट ले भी आएं,तो प्रधानमंत्री कुर्सीके लिए एक नाम पर एकमत नहीं हो पाएंगे।और,कांग्रेसके पास नेतृत्वके लिए नेहरू-गांधी परिवारका कोई विकल्प नहीं है।सो पहले दिनसे ही मोदी राहुल गांधीको पप्पू साबित करनेमें लग गए,वह सफल भी हुए और 2019में और भी अधिक सीटें जीतनेमें सफल हुए।

2019से शुरू मोदीजीका दूसरा कार्यकाल
असफलताओं की अनन्त गाथा है।मंहगाई,भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी चरम पर है,आर्थिक स्थिति डांवाडोल है,लोक उद्यम बिक रहे हैं,रेलवे स्टेशन,बंदरगाह,हवाई अड्डे बिक रहे हैं,बैंक दिवालिया हो रहे हैं,60%आबादी गरीबी रेखा से नीचे जी रही है,शिक्षा-स्वास्थ का बुरा हाल है,किसान सड़कों पर हैं,अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका टाइम ने मोदीका शुमार ऐसे कुख्यात लोगों में की है,जिनसे भारतकी धर्मनिरपेक्ष छविको गहरा खतरा है,मीडिया बिकाऊ है,मानवाधिकारका हनन हो रहा है,महज एक वर्षमें मोदीजीकी लोकप्रियताका ग्राफ 66%से घटकर 24%तक रह गया है।

मोदीजीकी स्थिति 1974की इंदिराजीकी स्थिति(जब इंदिराजीको जेपीके संपूर्ण क्रान्ति आन्दोलनसे गंभीर चुनौती मिली थी),1987के राजीव गांधीकी स्थिति (जब वीपी सिंहने बोफोर्स तोपमें दलालीके मुद्दे पर घेरा था),और 2011-12में डॉ मनमोहन सिंहकी स्थिति(जब बाबा रामदेव और अण्णा हजारेका आंदोलन अपने शबाब पर था)से बदतर है।इसीलिए, राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2022के प्रारंभमें उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड,पंजाब,गोआ और मणिपुर विधानसभाओंके चुनाव परिणाम अपेक्षित नहीं रहे,तो मोदीजी अपनी बची खुची लोकप्रियता के भरोसे मध्यावधि आम चुनाव कराना पसंद करेंगे,ताकि आगे 5वर्ष तक सत्ता में रहा जा सके।

लेकिन अंधभक्तोंकी फौज यह स्थापित करनेमें जुटी हुई है कि टीना फैक्टर काम करेगा यानि कि देयर इज नो अल्टरनेटिव।……जीतेगा तो मोदी ही। लेकिन, उन्हें इतिहास से सबक लेना चाहिए कि जब नेहरू, इंदिरा या अटलजी का विकल्प मिल गया,मोदी विकल्पहीन नहीं हो सकते-मोरारजी देसाई,पीवी नरसिंहराव,एचडी देवगौड़ा,डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री चुने जाने तक प्रधानमंत्री बनने का नहीं सोचे थे।आगामी आम चुनाव मध्यावधि न भी हों,तो 2024में तो होंगे ही।……तब,मोदी युग समाप्त हो जाने की पर्याप्त संभावना है।हां!मोदी के हर विरोधी को मोदी युग की समाप्ति के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देना होगा।

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