भारतीय राजनीति का यह प्रसिद्ध जुमला रहा है कि दिल्लीकी सत्ताकी राह उत्तरप्रदेशसे होकर गुजरती है।उत्तरप्रदेश 80लोकसभा और 403विधानसभा सीटोंवाला प्रदेश है।उत्तरप्रदेशकी आबादी ब्रिटेन,फ्रांस,जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशोंसे कहीं ज्यादा है।सो,उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान लगभग 1वर्ष पूर्व शुरू हो जाते हैं।उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव अब बमुश्किल 5महीने रह गए हैं।सो राजनैतिक हलचल तेज हो गई है।विभिन्न चैनल-सर्वे एजेंसी-समाचार पत्र पूर्वानुमान,ओपिनियन पोल,आकलन,विश्लेषणमें जुट गए हैं।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2007,2012और 2017में कांग्रेसको मिले वोटोंका अध्ययन,आकलन और विश्लेषण करें,तो 2007में उसे 8.61%वोट मिले और उसने 22सीटें जीतीं,2012में उसे 11.63%वोट मिले और उसने 28सीटें जीती,2017में उसे महज 6.25% वोट मिले और उसके सीटोंकी संख्या घटकर महज 7 रह गईं,वह भी तब जबकि अखिलेशके नेतृत्ववाली समाजवादी पार्टीसे उसका गठबंधन था।
2-3महीने पहले तक कोई नहीं मान रहा था कि कांग्रेस अपना राजनैतिक वजूद स्थापित कर पाएगी।अखिलेश यादवने तो साफ-साफ कह दिया कि इस बार वह कांग्रेसके साथ गठबंधन करने से रहे।गठबंधन नहीं रहनेकी दशामें कांग्रेसके सामने चुनौती पिछला परफार्मेंस दुहरानेकी थी।
विभिन्न चैनलों पर प्रसारित होने वाले ओपिनियन पोल की बात की जाए,तो एबीपी-सी वोटरने अपने ताजा सर्वेमें कांग्रेसके लिए 3-7 सीटोंका पूर्वानुमान लगाया।दैनिक देशबन्धु जून,2021से अपने यू-ट्यूब चैनल पर हर महीनेके अंतिम शनिवारको 5विधानसभाओं- उत्तराखंड,पंजाब,गोवा,मणिपुर और उत्तरप्रदेश-का ओपिनियन पोल प्रसारित कर रहा है।जून,2021में कांग्रेसके लिए इसका पूर्वानुमान 11-19सीट,
जुलाई,2021में 12-20सीट,अगस्त,2021में 7-15सीट का आकलन किया।सितम्बर,2021के अंतिम सप्ताह आते-आते इसके पूर्वानुमानोंमें बड़े फेरबदलके अनुमान दिखे,क्रॉस चेकके लिए प्रसारण रोक दिया गया।सितंबर,2021के अंतिम शनिवारके लिए पूर्व निर्धारित प्रसारण दो सप्ताह रोककर 16अक्तूबरको प्रसारित हुए।इसमें कांग्रेसके सीटोंके पूर्वानुमानमें जबरदस्त उछाल आया।इस ताजा पूर्वानुमानमें कांग्रेसके लिए 25-33सीटोंका पूर्वानुमान बताया जा रहा है।इस पूर्वानुमानमें कांग्रेसने मायावतीके नेतृत्ववाली बसपाको पीछे छोड़ दिया है।
विधानसभा चुनावके पैटर्न लोकसभा चुनावसे सर्वथा अलग होते हैं।ऐन चुनावके पहलेके 24घंटोंमें भी व्यापक उलटफेरकी संभावना बनी रहती है।वैसे,तो 18जनवरी,1977को इंदिराजीने आमचुनाव की घोषणा की थी और वोट 16-18-20मार्चको डाले गए थे। समय इतना भी नहीं था इंदिराजीको शिकस्त देनेके लिए चार पार्टियोंके विलयसे जो जनता पार्टीके गठन की बात सोची गई थी,उस पार्टीका विधिवत गठन हो पाए।प्रस्तावित जनता पार्टीके सभी उम्मीदवार तकनीकी तौर पर भारतीय लोकदलके चुनाव चिह्न और उसके उम्मीदवारके रूपमें चुनाव लड़े थे।लेकिन,महज 2महीने के अंतरालमें इन्दिराजीकी तानाशाही प्रवृतियोंके खिलाफ जो जन-ज्वार उभरा,उसने वोट क्रान्तिका एहसास कराया।जब महज दो महीनेमें राष्ट्रीय परिदृश्य बदल सकता है,तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव तो अभी तकरीबन 5महीने दूर हैं।
आज वोटिंग ट्रेंड्स बदले हैं।अब कोई मतदाता ऐसे उम्मीदवारको वोट कतई नहीं देना चाहता,जिसके जीतनेकी कोई संभावना न हो,या सरकारमें शामिल होनेकी कोई संभावना न हो।इसीलिए,निर्दलीय या छोटी पार्टियोंके उम्मीदवारोंकी चुनावी संभावना लगातार कम हुई है।
उत्तरप्रदेश विधानसभाके पिछले 3चुनावोंके कुल वोटों की संख्या और हुए मतदान प्रतिशतका अध्ययन, आकलन और विश्लेषण करें-2007में कुल वोट थे 11.30करोड़-वोट पड़े 45.96%,2012में कुल वोट थे 12.74करोड़-कुल वोट पड़े 59.40%,2017में कुल वोट थे 14.05करोड़-कुल वोट पड़े-61.04%।इन आंकड़ोंके आधार पर एक अनुमान किया जा सकता है कि 2022के चुनावमें कुल वोट होंगे 15.50करोड़ और डाले जानेवाले वोटोंका प्रतिशत हो सकता है- 65% यानि कि तकरीबन 10.5करोड़से ज्यादा वोट पड़ेंगे।
बसपाने 2007में 30.43%के साथ 15872561वोट प्राप्त किए और वह अकेले 206सीट जीतकर सत्तासीन हुई।2012में बेशक इसने सत्ता गंवायी,लेकिन 25.91%वोटके साथ 19647303 वोट प्राप्त किए अर्थात् इसके अपने वोटोंमें लगभग 24%इजाफा हुआ।2017में बसपाको बेशक महज 19सीटें मिली,लेकिन तब भी इसे 19281352वोट मिले अर्थात् इसके वोटों में 2%से भी कमकी गिरावट दर्जकी गई।
लेकिन नागरिकता संशोधन कानून और धारा 370पर जिस प्रकार बसपाने भाजपाका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग किया है,उससे मायावतीकी राजनीतिक साख धराशायी हुई है।दूसरी तरफ,मोदीराजमें सीबीआई और आईबी के संभावित कार्यवाहियों से मायावती आतंकित और आशंकित रहीं।लालू प्रसादवाली जीवटता उनमें है नहीं।सो,वह राजनीतिक रूपसे अ-सक्रिय हैं।अगर,थोड़ी बहुत सक्रियता दिखा भी रही हैं,तो वह भाजपा पर उस तेवर से आक्रमण नहीं कर रहीं हैं,जिसके लिए वह जानी जाती हैं।मायावती और बसपा सत्ता के रेस से बाहर हैं।2007,2012और 2017के वोटिंग ट्रेंड्सको आधार मानें तो मायावती(बसपा)के वोटोंका हिस्सा 22% यानि कि लगभग 2.25करोड़ वोटका बिखराव होगा।इसमेंसे कांग्रेस कितना पाएगी,यह भविष्यके गर्तमें है।
किसी भी जीवंत,जाग्रत लोकतंत्रमें सजग,सचेत, सचेष्ट विपक्षकी अपनी महत्ता और सार्थकता है।2017-22के दौरमें प्रादेशिक राजनीतिमें उत्तरप्रदेश विधानसभामें मान्यताप्राप्त विपक्ष समाजवादी पार्टी ही रही।लेकिन, कभी भी,कहीं भी वह प्रासंगिक और सार्थक विपक्षकी भूमिका नहीं निभा पाई और आज भी अखिलेश यादव और सपा भाजपाके नकारात्मक वोटोंके भरोसे सत्ताप्राप्तिकी उम्मीद लगाए हुए हैं।
2014के बाद मोदीयुगमें भी भाजपाको जब-जब सीधी टक्कर मिली है-भाजपा हारी है।छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश, राजस्थान,दिल्ली,पंजाब और प.बंगाल इसके उदाहरण हैं।इसीलिए,भाजपा अपना राजनैतिक हित इसीमें देख रही है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावमें उसे सीधी टक्कर न मिले।इसीलिए वह चुनावको कम-से-कम त्रिकोणीय रखना चाहती है।भाजपाका आकलन है कि कांग्रेसकी सीटें एक हद तक बढ़ जाए,तो भी सत्ता हासिल करने तक वह नहीं पहुंच पाएगी।इसलिए, भाजपा अखिलेश यादव और सपाके तथाकथित विजय अभियानको हरसंभव तरीकेसे कुंद करने और एक हद तक कांग्रेसको अपना अभियान चलानेकी छूट दे रही है।हर राजनैतिक विश्लेषक मान रहा है कि लखीमपुर-खीरी कांड उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दृष्टिकोणसे टर्निंग प्वाइंट साबित होने वाला है।प्रशासनिक कदमोंसे अखिलेश यादवको उनके आवास से निकलने नहीं दिया गया,जबकि थोड़े अवरोधोंके बाद राहुल-सोनिया लखीमपुर- खीरी तक गए।मीडियामें प्रियंका और कांग्रेस पार्टीको मिल रही तवज्जो भाजपा की इसी रणनीतिका परिणाम दिखता है।
प्रियंकाके नेतृत्वमें कांग्रेसको मिल रही बढ़तकी एक खास वजह भाजपाका अन्दरूनी द्वन्द्व भी है।कोरोना वैक्सीनके लिए भले योगीजी मोदीजीका आभार व्यक्त कर रहे हों और मोदीजी हर दौरेमें योगीजीको भांति- भांतिका प्रमाणपत्र दे रहे हों,लेकिन यह एक खुला सच है कि 2017में उप्रके मुख्यमंत्रीके तौर पर मोदीजीकी पसन्द योगी नहीं थे।योगीको मुख्यमंत्री बनवाया आरएसएसने।पहले ही दिनसे गैर-हिंदी प्रदेशोंमें भी योगी आदित्यनाथको हिंदू हृदयसम्राटके रूपमें कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया,गोया वह भावी प्रधानमंत्री हों।जबकि,अमित शाहकी महत्वाकांक्षा रही है कि मोदी की विरासतके असली उत्तराधिकारी वह होंगे।
चौधरी चरण सिंह और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बननेके पहले उप्रके मुख्यमंत्री रह चुके हैं।नेहरू,शास्त्री, चंद्रशेखर और अटलजी सीधे प्रधानमंत्री जरूर हुए लेकिन वह सभी उत्तरप्रदेशकी स्थानीय राजनीतिको अपनी हथेलीकी रेखाओंकी तरह जानते-समझते थे।ऐसे में योगी आदित्यनाथमें पूरी स्वाभाविकतामें 2024में प्रधानमंत्री बननेकी महत्वाकांक्षा जगी।नरेन्द्र मोदी यह साफ-साफ देख रहे हैं कि अगर योगीके मुख्यमंत्रित्वमें भाजपा उप्रमें पूर्ण बहुमतमें लौटती है,तो 2024के आमचुनावके पहले ही भाजपाके भीतर योगी उन पर हावी हो जाएंगे।इसलिए,एक मुख्यमंत्रीके तौर पर योगी की असफलताओंकी चर्चा सुनियोजित तरीकेसे मीडिया में पुरजोर तरीकेसे करवाई गई।आरएसएस पर भी दबाव बनाया गया कि उत्तराखंड,कर्नाटक,गुजरातकी तरह ही उत्तरप्रदेशमें मुख्यमंत्री बदला जाए,लेकिन योगीजी अड़े हुए हैं कि भाजपा उनको उप्रका भावी मुख्यमंत्री घोषित करे।लेकिन,मोदी-शाहकी जोड़ी योगी आदित्यनाथको उपकृत करनेसे रही।योगीजीके सामने मोदी-शाहकी मंशा उजागर होनेके बाद योगीजी किसान आन्दोलनको अघोषित तौर पर हवा दे रहे हैं,क्योंकि किसान आन्दोलनके निशाने पर मोदी-शाह हैं,न कि योगी।किसान आन्दोलनका राजनैतिक लाभ प्रियंकाको मिलनेके पीछे भी योगी आदित्यनाथका हाथ बताया जा रहा है।क्योंकि,उप्रमें कांग्रेस जितनी मजबूत होगी, केन्द्रमें मोदी-शाह उतने ही कमजोर होंगे।
किसान आन्दोलनका नेतृत्व कर रहे लोगोंको मालूम है कि भाजपा और मोदी-शाह उनकी मांगे-तीनों कृषि कानूनोंको निरस्त करना-माननेसे रहे।इसके लिए उप्र और केन्द्रसे भाजपाकी बिदाई जरूरी है।केन्द्रमें एक ऐसी सरकारकी जरूरत है,जो उनकी मांगोंके प्रति संवेदनशील हो।अगर सपा और कांग्रेसका गठबंधन नहीं होता है,और किसी एक को चुनना हो,तो उन्हें समाजवादी पार्टीकी तुलनामें कांग्रेसको चुनना श्रेयस्कर दिखता है।क्योंकि,केन्द्रमें भाजपाको कांग्रेस ही सत्ताच्युत कर सकती है,सपा नहीं।वैसे,किसान नेताओं का अंदरूनी दबाव है कि उप्र विधानसभा चुनाव,2022 सपा और कांग्रेस मिलजुलकर आपसी गठबंधन में लड़ें और तमाम गैर-भाजपा दलोंको अपने साथ रखें।किसान नेताओंकी इसी समझके कारण लखीमपुर- खीरी कांडके बाद प्रियंका गांधी वाड्रा एक जननायिका के रूपमें उभरी हैं।
1990के बाद उप्र की राजनीति जाति और सम्प्रदायके
समीकरणोंको साधनेकी राजनीति रही है।प्रियंकाने 40% टिकट महिलाओंको देनेकी घोषणा कर जाति और सम्प्रदायकी राजनीति पर गहरी चोट की है।
अभी तक,जो भी ओपिनियन पोल सामने आए हैं, उसमें भाजपाकी सीटें तो घटती दिख रही हैं,सपा की बढ़ती भी दिख रही हैं,लेकिन इतनी नहीं कि वह अकेले सरकार बना सके।वैसे में,सपा-कांग्रेस की गठबंधन सरकार की ही संभावना ज्यादा है।सपा और कांग्रेस इस भविष्यको अगर चुनाव पूर्व समझ सके, भाजपा का सीधा मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन से होगा।सीधे मुकाबलेमें भाजपाकी बड़ी हार सुनिश्चित है।
पंकज कुमार श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार
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