हमेशा से ही हमारे परिवारों में, समाज में हमारे बड़े हमें कुछ न कुछ उनसे, अपने गुरुओं से,अपने मित्रों से कुछ नया और अच्छा सीखने के लिए प्रेरित करते आए हैं | यदि उन्होनें ज़िंदगी में कोई ऐसा अनुभव लिया हो जिससे कोई बड़ा नुकसान हुआ हो वे उससे भी हमें बचने की और ऐसा काम न करने की सीख देते हैं |
पहले बच्चे एकदम सभी सीख लकीर के फकीर बनकर मानते थे | जो एक बार माता-पिता ने, गुरु ने कह दिया सो सिर-आँखों पर रखते थे | उनकी सफल संस्कारी ज़िंदगी का श्रेय शायद इन सबको ही जाता है किन्तु आज के परिवेश में यह विचार बच्चों को स्वीकार्य नहीं है | ज़्यादातर बच्चे जब दूसरों में कुछ भी अच्छा देखते हैं या उनकी प्रशंसा सुनते हैं तो वे किस अच्छी वजह से चर्चा में आए या क्यों उन्हें उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं ? हम कैसे अपने अंदर के गुणों को निखारें ? हम कैसे सीखें कि हम खुद भी कुछ श्रेष्ठ करने की ओर कदम बढ़ा सकते हैं !
पर नहीं, बढ़ जाते हैं ऐसी दिशा में जहाँ हमें सीखने की बजाय एक एलर्जी सी होने लगती है ! हम खुद को इतना छोटा कर लेते हैं कि कंकड़ मात्र हों जैसे !
भीतर-ही भीतर जलन/ईर्ष्या/घृणा और न जाने कितने संकीर्ण विचार कौंधते हैं मन –मस्तिष्क में !
सामने वाले के कार्यों की प्रशंसा जब हम अपने घर से बाहर मित्रगणों के बीच, अध्यापकों के बीच या अन्यत्र कहीं भी सुनते हैं तो ऐसी ध्वनियों से कर्ण-भेद, चेहरे पर बनावटी हाव-भाव, मन में कुंठा, बेचैनी ये सब विकार हमें घेर लेते हैं |
यदि गलती से घर में किसी ने या टीचर ने उपलबद्धि प्राप्तकर्ता को लेकर कोई व्याख्यान दे डाला, प्रेमपूर्वक ही कह डाला- ” बेटा ! फलाने बच्चे ने यदि अपने पसंदीदा क्षेत्र में उपलबद्धि प्राप्त की है, तुम भी बेटा किसी लक्ष्य की तरफ बढ़ो, जिस विषय में रुचि है उस काम को करते चलो ! देखो तुम्हारे मित्र ने पढ़ाई के साथ-साथ ……… में भी सफलता हांसिल कर ली, तुम भी कर सकते हो !”
चाहे यह बात एक अच्छे नज़रिये से रखी गई है पर तुरंत से बच्चे आवेश में आकर उस जगह से उठ खड़े होते हैं और रूठ जाते हैं और सोचते हैं माता-पिता, गुरु और सभी हमें कंपेयर कर रहे हैं, वे अपनी भीतरी ईर्ष्या और एलर्जी के चलते सकारात्मक सोच ही नहीं पाते कि सभी हमारी प्रतिभाओं को जगा रहे हैं |
बहुत कम बच्चे इसे सीधा-सीधा लेते हैं | इसकी वजह आज के दौर में बढ़ते हुए शायद हम ही तो नहीं !
वैसे हर उम्र के लोग आजकल ऐसे हो चुके हैं, अपने-अपने कार्यक्षेत्र में अपने साथियों को आगे बढ़ते देखकर उनके दिल में ये सोच नहीं आती कि सबके पास ईश्वर की दी हुई प्रतिभाएँ हैं हम अपनी प्रतिभा से दूसरों को निखारने की कोशिश कर सकते हैं बजाय **एलर्जीटिक भावना *अपने मन और मस्तिष्क में लाए | सोशल मीडिया पर ही देख लीजिए किसी कि सफलता पर लाइक ज़बरदस्ती कर भी दिया दिखने के लिए तो कमेन्ट करते हुए हाथों में दर्द होता है एलर्जी हो जाएगी शायद !|
ऐसा होना अब असंभव सा हो गया है हखुद हमारी ही वजह से | यदि हमें ऐसी संतान चाहिए और ऐसे नागरिक चाहिए जो निस्वार्थ बनें और अपनी प्रतिभाओं में खुद को आगे बढ़ाते हुए दूसरों का भी कल्याण करें और सामने वाले के टेलेंट का सम्मान दिल से करें, प्रोत्साहित करें तो अवश्य ही ये शुद्ध विचार एक एन्टी एलर्जिक मैडिसिन का काम करेंगे |
सबसे बड़ी बात ये डोज़ किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं ये पूरे समाज,पूरे देश के लिए एक औषधि बन जाएगा |
बढ़िए फिर एक कदम सबकी चोटी-बड़ी सफलताओं को सराहने की ओर और खुद की अलग पहचान बनाने की ओर |
भावना अरोड़ा मिलन
अध्यापिका, शिक्षिका एवं विचारक
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