झूठी-साँची चाय हो, भाय प्रशंसा ख़ूब ।
जाके फेर में परकें, कहूँ न ज़इयो डूब ।।
सर्व विदित है कि बढ़ाई ऊपरी हो या अंदरूनी सामने वाले के दिल पर सीधा असर करती है । ये बात अलग है कि समझदार को इशारा काफ़ी होता है कि वो स्वयं को की गई प्रशंसा पर कितना खरा पाता है । या फिर कोई प्रशंसा इसलिए कर रहा है कि अपना मतलब ठग सके ।
लोग कई कारणों से प्रशंसा करते पाए जाते हैं हर क्षेत्र में । घर से ही शुरू कीजिए पतिदेव को कुछ अच्छा खाने का मन है,या देरी से ऑफ़िस से आए तो पत्नी के ग़ुस्से से बचना है तो, या कोई गुस्ताखी हो गई हो तो रूठी पत्नी को मनाने के लिए शब्दों का झोल करेंगे -‘ आज बहुत सुंदर लग रही हो, ये लो तुम्हारे लिए पसंदीदा गुलाबजामुन लाया हूँ ।’
किचिन में पसीने से लथपथ धर्मपत्नी को अंदर से सब पता होता है कि झूठी मसखरी करने से प्राणेश्वर बाज़ नहीं आएँगे फिर भी हल्की सी मुस्कुराहट के साथ
‘ हाँ-हाँ रहने दो झूठी तारीफ़’ पत्नी गुलाबजामुन का आनंद तो ले ही लेती है ।( मन में सोचती है ‘ ये मेरा कितना ख़याल रखते हैं ।’)
बच्चों को कोई मतलब साँठना हो तो हो जाएगी उनकी उल्टी कसरत शुरू,जैसा रोज़ बतियाते हैं घर में उसका एकदम विपरीत व्यवहार शुरू , एकदम भाषा में नरमी , मम्मी-पापा को बड़े प्यार से अदब से पेश आना, जी हजूरी करना वगेरह-वगेरह
चलो घर में तो प्रेम-प्यार बढ़े इसलिए यदि एक-दूसरे को चाहे काम या बेकाम कैसे भी सराहें पर ये सराहना बुरी नहीं लगती क्योंकि प्रशंसक और प्रशंसनीय दोनों ही पात्र भीतर से रिश्तों को समझते हैं,परिचित होते हैं आपस में सौ झूठी-सच्ची तारीफ़ों पर मुस्कुराते हुए, प्रोत्साहित करते हुए, सकारात्मक जीवन शैली को जन्म देते हैं और सम्पूर्ण जीवन बिता देते हैं !
किंतु घर की चार दीवारी से निकलते ही प्रशंसा -‘ प्रहार और संशय’ को ही जन्म देती है । लोग इस शब्द को इस कदर इस्तेमाल करते हैं कि हर दांव-पेंच खेलते हैं इस पर सवार होकर । छल-छदम से भरी भी होती है -होंठो पर कुछ और दिल में
लहु पीने का भाव. ओफिसियल लेंगुएज़ में लाइन लगाकर सग़रे काम के सगे सब काम से जुड़े लेकिन जहाँ किसी के प्रमोशन पर तालियाँ बजेंगी वहीं मन से गालियाँ भी निकलेंगी । सामने वाले की मेहनत- काम मदद सब भूल जाएगा और शुरू होगा इधर-उधर बुराइयों का सिलसिला, भीतर-ही-भीतर खून खौलना । ये एक उदाहरण ही नहीं जीवन का आईना है ।
प्रशंसा के सड़क पर ज़्यादातर बनावटी, दिखावटी रूप ही मिलेंगे । हर कोई गधे को गधा नहीं कहता यहाँ लेकिन गधे का इस्तेमाल तो सदियों से काम के लिए किया ही जा रहा है न । घोड़े को तो पता ही होता है कि वो घोड़ा है और उसे प्रशंसा करने वाले की बातों से उतना फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि वह काम ही प्रशंसा वाले करता है उसे अपनी योग्यता का ज्ञान है किंतु कोई गधे को घोड़ा कहे तब तो समझ लो फिर आप, कि गधा तो वाहवाही लूटने में खुद को ही गुमा देगा और लोग उसका इस्तेमाल करते ही जाएँगे जबतक उसकी कमर न टूट जाए । उसके काम यही ध्वनि सुनेंगे -‘बहुत बढ़िया,बहुत सुंदर, वाह ! क्या बात आपने तो कमाल कर दिया…………यदि पचास प्रशंसकों में एक आलोचक मिल जाए भले ही वह निष्पक्ष होकर अपना विचार रखे तो समझो उसकी शामत आ गई, पर आपको तो आदत हो गई है अंधों में काना राजा बनने की तो ग़ुस्सा तो आएगा ही न । आप ये नहीं परखेंगे कि क्योंकर सामने वाले ने आलोचना की,कहीं मेरे कार्य में कमी तो नहीं ?
अपनी कमी बाद में देखेंगे या देखना ही नहीं चाहेंगे किंतु भड़केंगे अवश्य बिना सोचे समझे और मन में बुरा भी मनाएँगे मन ही मन कहेंगे -‘ बड़ा आया मुझे सिखाने वाला’
याद रखिए प्रशंसा बाज़ार में सरे आम फ़्री में बँट रही है -किसी को डंडे थोड़ी खाने हैं, आलोचक बनकर । व्यक्ति कितना धोखा खाता है ये उसे बहुत देर बाद ज्ञात होता है जब वह अपने भीतर झाँकता है कि वह तो झूठी दुनिया में गुम था ।
हर ओर यहाँ सियार,लोमड़ी गिरगिट ही घूम रहे हैं मौक़े पर चौक लगाते हैं -‘गधे को बाप बनाते हैं।
भैया प्रशंसा का स्वच्छ और पोज़िटिव रूप बहुत कम ही देखने को मिलता है समाज में ।
यदि क़ाबिलियत के अनुसार यह ‘ प्रशंसा आभूषण मिले तो अवश्य ग्रहण कीजिए, वरना प्रशंसक की बातों से ही समझ जाओ कि ‘दाल में कुछ काला है ।’
प्रशंसा से कई बार मनोबल मिलता है व्यक्ति जीवन में बहुत आगे जा सकता है और कई बार गुमनाम भी हो सकता है । बशर्ते प्रशंसक की नीयत कैसी है ये विचारणीय तथ्य है । लेते रहिए प्रशंसा का लुत्फ़ क्योंकि इससे बच तो नहीं सकते किंतु खुद को सच्चे मायनों में इसके क़ाबिल तो बना सकते हैं
भावना अरोड़ा’मिलन’
नई दिल्ली
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