धर्म संस्कृति

एक गैर-इतिहासकार की इतिहास यात्रा: किष्किंधा से हम्पी तक(भाया विजयनगर)

Written by Vaarta Desk

मैं इतिहासकार नहीं हूं।इतिहास का मैंने सिलसिलेवार अध्ययन भी नहीं किया है।एक हद तक प्रचलित मानदंडों के आधार पर मैं धार्मिक भी नहीं हूं।मैं धार्मिक अनुष्ठानों में उतना ही भाग लेना चाहता हूं,जितना वह लोकोत्सव हो।व्यापक लोक-आस्था का मैं दिल से सम्मान करता हूं-इसलिए कोलकाता का शारदीय नवरात्रि,पटना का छठ,या फिर कुंभ मेला मुझे भाता है।अबतक मथुरा-वृंदावन की होली और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा नहीं देख पाने का मुझे मलाल है।एक बार मैंने गोवा की यात्रा सिर्फ इसलिए की ताकि वहां का क्रिसमस देख सकूं।

पापा को भी मैंने कभी धूप-दीप-नैवैद्य लेकर पूजा-पाठ करते नहीं देखा।लेकिन,वह तुलसी साहित्य के मर्मज्ञ थे।दोहावली,कवितावली या फिर विनय पत्रिका का उन्होंने विषद अध्ययन किया था।रामचरितमानस उनको कंठस्थ याद था।कभी-कभी तो वह सोते-जागते,उठते-बैठते एक सीटिंग में पढ़ लेते थे,यानि कि नित्य क्रिया के अतिरिक्त सारा समय रामचरित मानस पाठ को दे देते थे।गीता प्रेस,गोरखपुर का रामचरितमानस का गुटका संस्करण उनके पास 24घंटे रहता था।यहां तक कि विगत 22जनवरी को जब उन्होंने अंतिम सांसें लीं,तो रामचरितमानस का गुटका संस्करण उनकी छाती पर था।इसलिए,मेरे लिए अयोध्या, बक्सर, अहिल्यास्थान, जनकपुर, सीतामढ़ी, चित्रकूट, नंदीग्राम, पंचवटी, किष्किंधा, रामेश्वरम की यात्रा धार्मिकता से ज्यादा एक समृद्ध विरासत को सहेजना-संवारना है।हालांकि,इन यात्राओं के पीछे मेरे पैदाइशी यायावर होने का भी अपना योगदान है।

अभी-अभी मैंने दो दिन की हम्पी यात्रा की।हम्पी से लौटते हुए ट्रेन में मैं यह आलेख लिख रहा हूं।इस यात्रा के दौरान मतंग हिल,शबरी की गुफा सहित ऋष्यमूक पर्वत भी गया।

मतंग हिल मतंग ऋषि के नाम पर है।वह महातपस्वी,योगी,त्यागी,वीतराग एवं सिद्ध महात्मा थे।ऋष्यमूक पर्वत के निकट इनका आश्रम था।रामायण में किष्किंधा के पास जिस ऋष्यमूक पर्वत की बात कही गई है वह आज भी उसी नाम से तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है।मतंग ऋषि की ख्याति सर्वत्र व्याप्त थी।वह अहिंसाव्रत का पालन करते थे।इनके अहिंसाव्रत के प्रभाव से आश्रम के चारों ओर विरोधी स्वभाव वाले जीव-जंतु भी परस्पर विरोध त्यागकर सद्भावपूर्वक रहते थे।

शबरी के आश्रयदाता

पिता ने शबरी का विवाह एक लड़के से कराना चाहा था,शबरी आधी रात को भाग खड़ी हुई।भागते हुए एक दिन वह दण्डकारण्य में पम्पासर पहुँच गयी।वहाँ ऋषि मतंग अपने शिष्यों को ज्ञान दे रहे थे। शबरी बहुत प्रभावित हुई और उन्होंने उनके आश्रम से कुछ दूर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली। एक दिन मतंग के शिष्यों ने उन्हें देख लिया गया और मतंग ऋषि के सामने लाया गया।मतंग ऋषि ने कहा की एक दिन श्रीराम तुझे दर्शन देंगे,वो तेरी कुटिया में आयेंगे। हुआ भी यही।अपने वनवास के दौरान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अनुज लक्ष्मण सहित शबरी की कुटिया में पधारे। भगवान श्रीराम का लक्ष्मण सहित कन्दमूल फल से स्वागत करने के पश्चात शबरी वन में जाकर गुरुजी का आश्रम उन्हें दिखाते हुए,मतंग ऋषि का चरित्र सुनाते हुए कहती हैं—“हे राम!जब आप सीता-लक्ष्मण सहित चित्रकूट पधारे थे,तब मैं ही गुरु मतंग ऋषि की सेवा करती थी।वे अतिवृद्ध थे।योग समाधि द्वारा अपने शरीर का त्याग करने की इच्छा उन्होंने व्यक्त की थी,तब मैंने भी शरीर त्याग करने की इच्छा प्रकट की।’

इसपर गुरु मतंग ऋषि ने मुझे मना करते हुए कहा था—“हे धर्मज्ञे!तुम इसी आश्रम में रहो,इसी पवित्र आश्रम में पूर्ण-परब्रह्म श्रीराम के रूप में अनुज लक्ष्मण सहित पधारेंगे।तुम दोनों का आतिथ्य-सत्कार पूर्वक दर्शन करते हुए अपने अविनाशी रूप को प्राप्त होओगी।’हे पुरुषश्रेष्ठ!ऐसा कहकर ही गुरुजी ने प्राणत्याग किए थे।तभी से मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी।

शबरी ने श्रीराम को मतंग ऋषि का आश्रम दिखाते हुए कहा—‘हे रघुनंदन!इस स्थान पर स्नानादि करने के पश्चात गुरुजी बैठकर सांध्योपासना तथा अग्निहोत्र करने के उपरांत अपने वृद्ध कांपते हाथों से स्वयं पुष्प तोड़कर तथा उनका सुंदर हार बनाकर देवताओं को समर्पित किया करते थे।हे रघुराम!जिस चबूतरे पर बैठकर वे पूजा करते थे,उस चबूतरे से अतुलित प्रकाश आज भी निकल रहा है।गुरुदेव द्वारा चढ़ाए गए पुष्प तेरह वर्ष व्यतीत होने पर भी आज भी ज्यों के त्यों है,मुरझाए नहीं है।गुरुजी अत्यंत वृद्ध होने के कारण जब सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा करने में असमर्थ हुए,तब उन्होनें यहीं पर बैठे-बैठे सात समुद्रों तथा नदियों का आह्वान किया,तो उनके स्नान के लिए सातों समुद्र यहां आये हुए देखे गए।वे अपने वृद्ध हाथों से जिन पेडों की सिंचाई करते थे,वे आजतक नहीं सूखे।

इतना कहने के पश्चात शबरी ने कहा—“मैंने आपके दर्शन कर लिए,मैं अब शरीरत्याग करना चाहती हूं।” भगवान की आज्ञा से शबरी ने योगाग्नि में शरीर त्यागकर गुरुजी का ब्रह्मलोक प्राप्त किया।

बालि को शाप

मतंग ऋषि के शाप के कारण ही वानरराज बालि ऋष्यमूक पर्वत पर आने से डरता था। इस बारे में कहा जाता है कि दुंदुभी नामक एक दैत्य को अपने बल पर बड़ा गर्व था,वह एक बार समुद्र के पास पहुँचा तथा उसे युद्ध के लिए ललकारा।समुद्र ने उससे लड़ने में असमर्थता व्यक्त की तथा कहा कि उसे हिमवान से युद्ध करना चाहिए।दुंदुभी ने हिमवान के पास पहुँचकर उसकी चट्टानों और शिखरों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया।हिमवान ऋषियों का सहायक था तथा युद्ध आदि से दूर रहता था।उसने दुंदुभी को इंद्र के पुत्र बालि से युद्ध करने के लिए कहा।बालि से युद्ध होने पर बालि ने उसे मार डाला तथा रक्त से लथपथ उसके शव को चार योजन दूर उठा फेंका।मार्ग में उसके मुँह से निकली रक्त की बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम पर जा गिरीं।महर्षि मतंग ने बालि को शाप दिया कि वह और उसके वानरों में से कोई भी यदि उनके आश्रम के पास एक योजन की दूरी तक जायेगा तो वह मर जायेगा।अत:,बालि के समस्त वानरों को भी वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा।मतंग आश्रम ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित था,अत: बालि और उसके वानर वहाँ नहीं जा सकते थे।यह बात उसके छोटे भाई सुग्रीव को ज्ञात थी और इसी कारण से जब वालि ने सुग्रीव को देश-निकाला दिया तो उसने वालि के भय से अपने अनुयायियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत में जाकर शरण ली।

मतंग ऋषि के ग्रंथ में ताल और वाद्य पर विचार किया गया है।मतंग ने कश्यप,नंदी,कोहल,दतिल, शार्दुल की चर्चा की है।नाटय शास्त्र के बाद तथा संगीत रत्नाकर के पहले का यह सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है।इसमें नाद का निरुपण मिलता है।श्रुति और स्वरों के बीच के संबंध पर दार्शनिक दृष्टि से इस ग्रंथ में विचार किया गया है।मतंग चित्रा वीणा के श्रेष्ठ वादक थे इसलिए इन्हें चैत्रिक कहा जाता था।किन्नरी वीणा के अविष्कारक भी मतंग ऋषि ही माने जाते हैं।

ऋष्यमूक पर्वत के नामकरण के पीछे कथा है कि जब रावण का अत्याचार बहुत बढ़ गया था बहुत से ऋषि उससे डरकर एक साथ एक पर्वत पर जाकर रहने लगे।ये ऋषि यहां मौन होकर रावण का विरोध कर रहे थे।जब रावण विश्वविजय के लिए इस पर्वत के समीप से गुज़रा तो उसने बहुत से ऋषियों को एक साथ देखा तो उसने उनके इक्टठे होने का कारण पूछा तो राक्षसों ने उसे बताया महाराज आपके द्वारा सताए हुए ऋषि मूक यानि मौन होकर यहां आपका विरोध कर रहे हैं।ये सुनकर रावण को क्रोध आ गया और उसने एक-एक करके सारे ऋषियों को मार डाला।उन्हीं के अस्थि अवशेषों से यहां पहाड़ बन गया, तभी से इस पर्वत को ऋष्यमूक पर्वत के नाम से जाना जाने लगा।

पंकज कुमार श्रीवास्तव

            रांची

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