नई दिल्ली। बैंकों में आज कर्मचारियों और अधिकारियों की संख्या में काफी कमी आयी है। जहाँ 2014 में 8.50 लाख वर्कफोर्स थी जो घटकर आज 7.46 लाख रह गई है। इसके विपरीत बैंकों का बिजनेस बढ़ा है, बैंक आज अच्छा खासा लाभ कमाने की स्थिति में हैं। यदि सरकार की सोच बैंको में वर्कफोर्स को कम करके एस्टेब्लिशमेंट कॉस्ट को कम करके प्रॉफिट बढ़ाना है, तो यह सरासर गलत है। यदि नहीं तो फिर बैंकों में नई भर्ती सही तरीके से क्यों नहीं हो रही। बैंक कर्मचारी आज जिन परिस्थितियों और दबाव में काम कर रहे हैं उससे जहां उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है वहीं कस्टमर सर्विस भी प्रभावित होती है। बैंकों में विभिन प्रकार के दबाव के कारण अभी तक सैंकड़ों बैंक कर्मचारी आत्महत्या कर चुके हैं।
बैंकों की वर्कफोर्स के अनुपात में भी बहुत ज्यादा अंतर है। बैंकों का टॉप भारी होता जा रहा है और निचले लेवल पर वर्कफोर्स (क्लर्क और सब स्टाफ) की बहुत कमी है। बैंकों में सफाई कर्मचारियों, सुरक्षा कर्मचारियों की भर्ती तो बिलकुल बंद है और इन कामों को आउटसोर्स किया जा रहा है । यदि वर्कफोर्स के अनुपात को ठीक किया जाए तो जहां एक और ग्राहक सेवा में सुधार हो सकता है, ऋण देने और रिकवरी प्रक्रिया में तेजी आ सकती है और एस्टेब्लिशमेंट कॉस्ट भी कम हो सकती है जिससे बैंकों का प्रॉफिट और बढ़ सकता है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का मुनाफा पिछले दस साल में बढ़कर 1.41लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया। सरकार की ओर से की गई विभिन्न पहलों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रदर्शन में सुधार हुआ है।
यह सही है कि सरकार की नीतियों के कारण आज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की काफी हद तक अच्छी हुईं है। लेकिन इसमें और भी बहुत से कारण और कर्मचारियों का योगदान है जिसे नकारा नहीं जा सकता। और यदि इन सभी कारणों पर ध्यान दिया जाए तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति और बेहतर हो सकती है। बैंकों के इस तरह हो रहे सुधार और लाभ के बढ़ने के बाद सरकार को इन बैंकों की वर्कफोर्स को कम करने के विचार भी छोड़ देना चाहिए और नई भर्ती पर जोर देना चाहिए।
वॉयस ऑफ़ बैंकिंग का मानना है की यदि सरकार इन सुझावों पर सकारत्मक विचार करती है तो निश्चित रूप से बैंकों के प्रॉफिट में और वृद्धि होगी।
अशवनी राणा
फाउंडर,
वॉयस ऑफ बैंकिंग