दृष्टिकोण

आज भी गांधी उतने ही प्रासंगिक हैं…… पंकज श्रीवास्तव

Written by Vaarta Desk

मोहनदास करमचंद गांधी अगर आज होते,तो 152वर्ष के हो जाते,लेकिन वह ठीक इसके आधा से कुछ ही ज्यादा-78वर्ष-जी पाए।वह नाथूराम गोडसेकी गोलियोंके शिकार हुए।1947में भारतकी जीवन प्रत्याशा महज 32वर्ष थी।एक अर्से तक सरकारी नौकरीसे सेवानिवृति की सामान्य उम्र सीमा 58वर्ष थी,अब 60वर्ष है।उस लिहाजसे 48वर्ष-के पके उम्रमें उन्होंने भारतके सार्वजनिक जीवनमें प्रवेश किया और आगे 30वर्ष तक भारतीय इतिहासके महानायक बने रहे।तबके
सार्वजनिक जीवनमें कई उनके हमउम्र ही नहीं,उनसे उम्रदराज भी थे।लेकिन,उन सबोंने उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया था।

आज बाजारमें स्वेट मार्टनसे लेकर डेल कार्नेगी,नार्मन विंसेंट पीलसे लेकर शिव खेड़ा तक अनेक लेखकोंकी व्यक्तित्व विकास पर अनगिनत पुस्तकें बाजारमें हैं,जो बेस्टसेलर होने का दावा पेश कर रहीं हैं, लेकिन आप गांधीके व्यक्तित्व और कृतित्वको जान-समझ लीजिए, उनके विचारोंको आत्मसात कर लीजिए,आप संपूर्णतामें इन बेस्टसेलर्स को जी लेंगे।

वह प्रवचनकर्ता नहीं थे,जिन्दगीमें जो-कुछ देखा सुना,जाना समझा,आत्मसात किया,जिया उसे ही दूसरों को बताया,समझाया,सिखाया।उनकी हर सीख उनके लिए भोगा हुआ यथार्थ थी।

वह ऐक्ट करते थे,रिएक्ट नहीं करते थे। उन्होंने गुस्से पर नियंत्रण पा लिया था।बड़े से बड़े आलोचक की आलोचनाओंको वह पूरी संजीदगीसे लेते थे, प्रत्यालोचनाओंसे सायास बचते थे।अपनी बहादुरी,अपनी हिम्मत,अपनी दिलेरीका कभी ढोल नहीं पीटा, लेकिन हर कोई उनकी हिम्मत और दिलेरी का मानता था।भारतमें अपने पहले प्रयोग-चंपारण सत्याग्रह-से ही उन्होंने अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया।अगर,वह किसी की जोर-जबरदस्ती नहीं सहते थे,तो किसी के साथ जोर-जबरदस्ती करते भी नहीं थे।उनके व्यक्तित्व में एक लचीलापन बराबर रहा,लेकिन समझौतावादी नहीं थे।जहां वामपंथकी सोच है कि समाजमें परिवर्तन सुनिश्चित कर दिया जाए,व्यक्ति खुदको बदलनेको बाध्य हो जाएगा।वहीं गांधी सोचते थे कि चरित्रवान व्यक्तियों से ही हम आदर्श समाजकी संकल्पना कर सकते हैं।

साफ-सफाई उनकी जीवनशैलीका अंग था।लोभ, लालचकी अपेक्षा आत्मसंतुष्टि उनके जीवनका आवश्यक तत्व रहा।एक व्यक्तिसे दूसरे व्यक्तिके प्रति सहयोग,सौहार्द्र,सह-अस्तित्व, का ही नहीं समाज,राष्ट्र और विश्वबंधुत्वके वह प्रबल पैरोकार थे।उन्होंने भ्रष्टाचारकी जितनी मुखालिफत की,उससे ज्यादा सदाचार पर जोर दिया।किसी व्यक्तिके दुर्गुणोंकी आलोचनासे ज्यादा उसके सद्गुणोंकी खुलकर प्रशंसा की। आत्मनिर्भरता उनकी जीवनशैली का आवश्यक तत्व रहा,व्यक्ति ही नहीं परिवार,गांव और समाज को वह आत्मनिर्भर देखना चाहते थे।वह इच्छाओंका दमन तो नहीं लेकिन विलासिता से विरक्ति के समर्थक रहे।एक बार में ढेर सारे कार्यकरने की तुलना में कम काम पूरी लगन,कर्तव्यनिष्ठा,और समर्पणसे किए जाने के पक्षधर थे।समाज,राष्ट्र और विश्व स्तर पर हर वर्ग के लोगों का आदर,मान और श्रद्धा के पात्र वह इसलिए बन सके,क्योंकि वह खुद भी हर व्यक्तिका सम्मान करते थे।

संयम और अनुशासनके वह प्रबल पैरोकार रहे।किसी भी व्यक्तिको वह सीख देते कि अपनी सीमित आयमें अपने खर्चोंको नियंत्रित करें।वह चाहते थे कि किसी भी परिवारकी कुल श्रमशक्ति का अधिकतम उपयोग अर्थोपार्जनके लिए हो। प्राकृतिक संसाधनोंके अंधाधुंध दोहनके खिलाफ वह संसाधनों और आय का सम्यक बंटवारा चाहते थे।वह न्यूनतम और अधिकतम आयवालों के नियमित आय का अनुपात 1:10से अधिक नहीं चाहते थे।वह यह मानकर चलते थे कि हर व्यक्तिमें एक नैसर्गिक गुण और क्षमता होती है,जिसमें विशेषज्ञता हासिल करने का उसे सौभाग्य और सुअवसर मिलना चाहिए।वह निरंतर आशावादी,आस्थावान और अटल विश्वास से भरे व्यक्ति थे और यही अपेक्षा दूसरों से भी करते थे।वह चुनौतियों से घबड़ाते नहीं थे,संघर्ष से भागते नहीं थे,संघर्षसे मिली सफलता पर इतराते नहीं थे।किसी के प्रति वह दुर्भावना और दुराग्रह पालते भी नहीं थे, इसलिए हर किसीको क्षमादान देना उनकी नैसर्गिकता थी।अपनी महानता उन्होंने किसी पर थोपी नहीं,और किसी अन्यके आभामंडलसे प्रभावित होकर उसकी चापलूसी करने की जरूरत नहीं पड़ी।उनकी नजरमें कोई भी काम छोटा नहीं था।वह हर काम पूरे धैर्य,लगन और निष्ठा से करते।उनके लक्ष्य स्पष्ट होते थे,किसी काममें कोई हड़बड़ी नहीं दिखाते,परिणाम मनोनुकूल नहीं होने पर भी व्यग्रता उनमें नहीं होती थी।निष्काम कर्मयोगी की वह जीती-जागती मिसाल थे।

अपने विचार और कार्यशैली में वह प्रयोगधर्मी और नवोन्मेषी थे।जिन बातोंको वह नहीं जानते थे,उनके प्रति अनभिज्ञता व्यक्त करनेमें संकोच नहीं करते थे।जिन बातों को जानना जरूरी हो,उसका सूक्ष्मतम अध्ययन, आकलन विश्लेषण उनके चरित्र का हिस्सा था।किसीके कार्योंकी भोंडी नकल उनके चरित्रका हिस्सा नहीं थी।अतिशय व्यक्तिवादिता के शिकार वह कभी नहीं हुए। उन्होनें हमेशा अपने अंतरात्मा की आवाज सुनी।
विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी के प्रति उनकी ग्राह्यता और स्वीकार्यता का अभाव न था,परन्तु वह तकनीक एवं प्रौद्योगिकी का दुरूपयोग संसाधनों और आय पर मुट्ठी भर लोगों के वर्चस्व और एकाधिपत्य के खिलाफ थे।कई लोगोंको यह भ्रम रहा है कि वह अहिंसक थे, लेकिन नहीं-वह व्यक्तिवादी और एकांगी हिंसाके खिलाफ थे,लेकिन व्यापक लोकहित और व्यापक संदर्भोंमें लोकहिंसाके खिलाफ थे।

जिस गांधीने चौरी-चौरा कांडके बाद पूरे शबाब पर चल रहे अखिल भारतीय असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया,उसी गांधी ने 8अगस्त,1942को ‘करो या मरो’ और ‘अंग्रेजों!भारत छोड़ो!’ का नारा दिया।

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