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कैसे हुई सर्पवंश की उत्पत्ति और क्यों मनाई जाती है नाग पंचमी

13 अगस्त को सम्पूर्ण भारत में मनाए जानेवाले पर्व नागपंचमी के अवसर पर ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री से जानिए सर्प वंश की उत्पत्ति की कथा, जिसका सम्बन्ध महाभारत काल से है।

महाभारत के अनुसार, महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियां थीं. इनमें से एक कद्रू भी थी. कद्रू ने अपने पति महर्षि कश्यप की बहुत सेवा की, जिससे प्रसन्न होकर महर्षि ने कद्रू को वरदाने मांगने के लिए कहा. कद्रू ने कहा कि एक हजार तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हों. महर्षि कश्यप ने वरदान दे दिया, उसी के फलस्वरूप नाग वंश की उत्पत्ति हुई.

महर्षि कश्यप की एक अन्य पत्नी का नाम विनता था. पक्षीराज गरुड़ विनता के ही पुत्र हैं. एक बार कद्रू और विनता ने एक सफेद घोड़ा देखा. उसे देखकर कद्रू ने कहा कि इस घोड़े की पूंछ काली है और विनता ने कहा कि सफेद. इस बात पर दोनों में शर्त लग गई। तब कद्रू ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि वे अपना आकार छोटा कर घोड़े की पूंछ से लिपट जाएं, जिससे उसकी पूंछ काली नजर आए और वह शर्त जीत जाए. कुछ सर्पों ने ऐसा करने से मना कर दिया. तब कद्रू ने अपने पुत्रों को श्राप दे दिया कि तुम राजा जनमेजय के यज्ञ में भस्म हो जाओगो श्राप की बात सुनकर सर्प अपनी माता के कहे अनुसार उस सफेद घोड़े की पूंछ से लिपट गए जिससे उस घोड़े की पूंछ काली दिखाई देने लगी. शर्त हारने के कारण विनता, कद्रू की दासी बन गई.

जब गरुड़ को पता चला कि उनकी मां दासी बन गई है तो उन्होंने कद्रू और उनके सर्प पुत्रों से पूछा कि तुम्हें मैं ऐसी कौन सी वस्तु लाकर दूँ जिससे कि मेरी माता तुम्हारे दासत्व से मुक्त हो जाए. तब सर्पों ने कहा कि तुम हमें स्वर्ग से अमृत लाकर दोगे तो तुम्हारी माता दासत्व से मुक्त हो जाएगी.

अपने पराक्रम से गरुड़ स्वर्ग से अमृत कलश ले आए और उसे कुशा (एक प्रकार की धारदार घास) पर रख दिया. अमृत पीने से पहले जब सर्प स्नान करने गए तभी देवराज इंद्र अमृत कलश लेकर उठाकर पुन: स्वर्ग ले गए. यह देखकर सर्पों ने उस घास को चाटना शुरू कर दिया जिस पर अमृत कलश रखा था, उन्हें लगा कि इस स्थान पर थोड़ा अमृत का अंश अवश्य होगा. माना जाता है कि ऐसा करने से ही उनकी जीभ के दो टुकड़े हो गए.

कद्रू के पुत्रों में एक शेषनाग भी थे. उन्होंने कद्रू और अपने सर्प भाइयों को छोड़कर कठिन तपस्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी उन्हें वरदान देने आए. तब शेषनाग ने कहा कि मेरी बुद्धि धर्म, तपस्या और शांति में बनी रहे. ब्रह्माजी ने शेषनाग की ऐसी भक्ति देखकर कहा कि ये सारी पृथ्वी पर्वत, वन, सागर और नगर हिलती-डुलती रहती है, तुम इसे इस प्रकार धारण करो कि ये स्थिर हो जाए. ब्रह्माजी के ऐसे कहने पर शेषनाग पृथ्वी के भीतर घुस गए और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर लिया. नागराज वासुकि को जब माता कद्रू के श्राप के बारे में पता चला तो वे बहुत चिंतित हो गए. तब उन्हें एलापत्र नामक नाग ने बताया कि इस सर्प यज्ञ में केवल दुष्ट सर्पों का ही नाश होगा और जरत्कारू नामक ऋषि का पुत्र आस्तिक इस सर्प यज्ञ को संपूर्ण होने से रोक देगा. जरत्कारू ऋषि से ही सर्पों की बहन (मनसादेवी) का विवाह होगा. यह सुनकर वासुकि को संतोष हुआ.

समय आने पर नागराज वासुकि ने अपनी बहन का विवाह ऋषि जरत्कारू से करवा दिया. कुछ समय बाद मनसादेवी को एक पुत्र हुआ, इसका नाम आस्तिक रखा गया. यह बालक नागराज वासुकि के घर पर पला. च्यवन ऋषि ने इस बालक को वेदों का ज्ञान दिया. उस समय पृथ्वी पर राजा जनमेजय का शासन था. जब राजा जनमेजय को यह पता चला कि उनके पिता परीक्षित की मृत्यु तक्षक नाग द्वारा काटने से हुई है तो वे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने नागदाह यज्ञ करने का निर्णय लिया.

जब जनमेजय ने नागदाह यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमें बड़े-छोटे, वृद्ध, युवा सर्प आ-आकर गिरने लगे. ऋषि मुनि नाम ले लेकर आहुति देते और भयानक सर्प आकर अग्नि कुंड में गिर जाते. यज्ञ के डर से तक्षक देवराज इंद्र के यहां जाकर छिप गया.

जब आस्तिक मुनि को नागदाह यज्ञ के बारे में पता चला तो वे यज्ञ स्थल पर आए और यज्ञ की स्तुति करने लगे. यह देखकर जनमेजय ने उन्हें वरदान देने के लिए बुलाया. तब आस्तिक मुनि राजा जनमेजय से सर्प यज्ञ बंद करने का निवेदन किया. पहले तो जनमेजय ने इंकार किया लेकिन बाद में ऋषियों द्वारा समझाने पर वे मान गए. इस प्रकार आस्तिक मुनि ने धर्मात्मा सर्पों को भस्म होने से बचा लिया. धर्म ग्रंथों के अनुसार, सर्प भय के समय जो भी व्यक्ति आस्तिक मुनि का नाम लेता है, सांप उसे नहीं काटते.

 

ज्योतिष सेवा केन्द्र
ज्योतिषाचार्य पंडित अतुल शास्त्री

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राजेंद्र सिंह

राजेंद्र सिंह (सम्पादक)

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