दृष्टिकोण राजनीति

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव 2022, मोदी-शाह से पिंड छुड़ाकर योगी का साथ देगा आरएसएस

Written by Vaarta Desk

1925में अपनी स्थापना कालसे ही आरएसएस हिन्दू हित का ढकोसला-राग गाता रहा है,लेकिन इसे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे हिन्दुत्वके संवाहक मनीषियों का व्यक्तित्व और कृतित्व कभी अच्छा नहीं लगा।इसके उलट इसे हिटलर और मुसोलिनीकी नस्लीय नीति अच्छी लगी।1930में डॉ हेडगेवार ने अपने तमाम स्वयं सेवकोंको कांग्रेसके सत्याग्रहसे दूर रहनेकी सलाह दी।

आरएसएसने 1934में वर्धामें आयोजित एक शिविरमें महात्मा गांधीको आमंत्रित किया था।गांधी इस बातसे खासे प्रभावित हुए कि स्वयंसेवकोंके सामूहिक चेतना, रहन-सहन,खान-पान और जीवनशैली में भारतीय सामाजिक-जातिगत व्यवस्था और छूआछूतका दुष्प्रभाव नहीं है।गांधीने सार्वजनिक तौर पर आरएसएस के इस सांगठनिक गुण की प्रशंसा की,जिसे आरएसएस समय -समय पर प्रमाण पत्रके रूपमें प्रस्तुत भी करता रहा है,लेकिन आंतरिक संगठनमें मराठा ब्राह्मणवादके वर्चस्वको तोड़ नहीं पाया।यही नहीं,छूआछूत और मानवीय असमानताको बढ़ावा देनेवाले’मनुस्मृति’के वैचारिक वर्चस्वसे उबर नहीं पाया।

 

आरएसएस विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक ‘हिन्दुत्व’को खासा महत्व देता है,लेकिन किसी भी स्वयंसेवकको सावरकरके नेतृत्ववाले राजनैतिक संगठन हिन्दू महासभामे जाने हेतु अभिप्रेरित नहीं किया।सच यह भी है कि मोदी आज भले ही 14अगस्त को विभाजन विभिषिका स्मृति दिवस मनाकर विभाजन का पाप मुस्लिम लीग और मो.अली जिन्ना के माथे पढ़ें,लेकिन धर्मके आधार पर दो राष्ट्रों का सिद्धांत विनायक दामोदर सावरकरने 1923में ही अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व’में प्रतिपादित किया था।1925में अपने स्थापनाकाल से आरएसएस सावरकर के इस सिद्धांत को प्रचारित-प्रसारित करता रहा।मो.अली जिन्ना की सत्ता लिप्साने इस सिद्धांत में आग में घी का काम किया और मुस्लिम लीग के मंच से उन्होंने एक बार मुस्लिमों के अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग की और फिर इस मांग के समर्थन में जी-जान से जुटे रहे और अंततोगत्वा हमें देश-विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी।

आजादीके लिए जापानकी मददसे नेताजी सुभाषचंद्र बोस का युद्धपरक संघर्ष हो या महात्मा गांधीके नेतृत्वमें 1942का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’- आरएसएसने अंग्रेजों का साथ दिया।

जब ब्रिटिश उपनिवेशवाद की समाप्ति अवश्यंभावी दीखने लगी,तो अपने भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज और मनुस्मृति को संविधान सदृश ग्रंथ की मान्यता दिलवाने का भरपूर प्रयास किया।आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र (Organizer)के 14अगस्त,1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुलकर भर्त्सना करते हुए लिखाः”वे लोग,जो किस्मतके दांवसे सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथोंमें तिरंगेको थमा दें,लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा,न अपनाया जा सकेगा।तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों,बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देशके लिए नुक़सानदेय होगा।”

सरदार वल्लभभाई पटेलकी स्पष्ट धारणा और मान्यता थी कि भारत-पाक विभाजनके त्रासद दौरमें मुसलमानों के प्रति घृणा और विद्वेष फैलानेमें आरएसएसने नकारात्मक और विध्वंसक भूमिका निभाई,और गांधी की हत्यामें इस वैचारिक अभियान की भी अहम भूमिका रही।इसलिए,गृहमंत्री की हैसियतसे पटेलने आरएसएस को बैन किया।आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर पाबंदी हटाए जानेके लिए दौड़-धूप करते रहे।पटेलने खरी-खरी कह दी-जो संगठन राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराता,उसे बैन-मुक्त नहीं किया जाएगा।

आखिरकार, गुरू गोलवलकरने लिखित माफी मांगते हुए राष्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्मान व्यक्त किया,तब जाकर आरएसएस से पाबंदी हटी थी। लेकिन,आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर भी आरएसएस मुख्यालय,नागपुर में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा नहीं फहराया जाता।जम्मू-कश्मीरको विशिष्ट राज्यका दर्जा देनेवाली संविधानकी धारा370 को समाप्त करने की आरएसएस और भाजपा की घोषित नीति रही है,लेकिन आरएसएस पृष्ठभूमि वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जीने संविधान सभाके सदस्यकी हैसियतसे कभी आपत्ति प्रगट नहीं की थी।वस्तुत:,आरएसएस और भाजपा संविधान की धारा 370को जम्मू-कश्मीर से बाहर शेष भारतमें हिन्दू मतोंके ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करता रहा है।जून,1975में आपातकाल की घोषणाके बाद अपने सांगठनिक चरित्र के अनुरूप आरएसएसके तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरसने इंदिरा सरकारके सामने माफीनामा देते हुए सरकार एवं प्रशासनको हरसंभव सहयोग देनेका वादा किया।इंदिर और उनकी सरकार के द्वारा अपेक्षित गंभीरता और दया नहीं दिखाए जाने पर आरएसएसने आन्दोलनात्मक रूख अपनाया।

आज,किसी आरएसएस के स्वयंसेवक से बात कीजिए तो वह ऐसे व्यवहार करेगा-गोया आपातकालका विरोध करनेवाला यह एकमात्र संगठन था।ये कमबख्त दावा तो ऐसा करेंगे, गोया इनकी भूमिका स्वयं लोकनायक जयप्रकाश नारायण से भी बड़ी थी।

1983-84तक रामजन्मभूमि मुक्ति और श्रीराम मंदिर निर्माण आरएसएस और भाजपाके एजेंडे में कहीं था नहीं।लेकिन,इन मुद्दों पर हिन्दू मतोंके ध्रुवीकरणकी संभावनाको देखते हुए आरएसएस और भाजपाने इसे लपक लिया।

आरएसएस और भाजपाने भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति पर्याप्त असम्मान दिखाया है।1992में कल्याण सिंह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री थे।आरएसएस,विश्व हिन्दू परिषद्,बजरंग दल जैसे प्रतिक्रियावादी संगठन 6दिसम्बर,1992को विवादित ढांचाको ढाहने पर उतारू दिखते थे।कल्याण सिंहने सुप्रीम कोर्टमें हलफनामा दायरकर आश्वासन दिया कि विवादित ढांचाको सुरक्षित रखने की पर्याप्त प्रशासनिक व्यवस्था कर रखी है।लेकिन,इस प्रशासनिक आश्वासन की पोल उस समय खुल गई,जब 6दिसम्बर,1992को इन प्रतिक्रियावादी संगठनोंने विवादित ढांचा ढाहकर अपना शौर्य दिखाया।तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की सरकारने कल्याण सिंह की सरकार समेत कई प्रदेशोंकी भाजपा सरकारोंको बर्खास्त किया,तो अपनी प्रतिक्रियामें कल्याण सिंहने कहा- रामलला,श्रीराम मंदिर,रामजन्मभूमि मुक्तिके लिए एक क्या कई सरकारोंको वह कुर्बानकर सकते हैं।संविधान, न्यायापालिका और लोकतांत्रिक व्यवस्थाके प्रति कल्याण सिंहके इस असम्मान और प्रशासनिक धूर्तताको अटलजीने बड़ी गंभीरता से लिया था और 1998में अटलजीके प्रधानमंत्री बननेके बाद अटलजी और कल्याण सिंहके रिश्ते कभी सहज नहीं रहे और आखिरकार कल्याण सिंहको भाजपा से बाहर जाना पड़ा था।यह अलग बात है कि भाजपा भी वर्षों तक उत्तरप्रदेशकी सत्तासे बाहर रही।

2010-12का दौर जनांदोलन,बेहतरीन मीडिया प्रबंधन और राजनैतिक प्रबंध कौशलका आरंभिक दौर था।रालेगांव सिद्धि(महाराष्ट्र)से निकलकर अण्णा हजारेकी कीर्ति ध्वजा पूरे राष्ट्रमें फहरा रही थी।सार्वजनिक, राजनैतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए केंद्रीय स्तर पर लोकपालके लिए जनांदोलन पूरे उफान पर था।काला धन वापस लानेकी मांग देशका हर नागरिक कर रहा था।लेकिन,इस जनाक्रोशको परिणामोन्मुख राजनीति के लिए कोई राष्ट्रीय स्तरका राजनैतिक संगठन वजूदमें नहीं था।ऐसेमें अपने चरित्रके अनुरूप अपने पक्षमें भुनाने आरएसएस आगे चला आया।

एक तरफ आडवाणीजीने लोकनायक जयप्रकाश नारायणकी जन्मस्थली सिताबदियारासे रथयात्रा शुरू की,तो गुजरातके तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदीने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंहको सवालोंके घेरेमें खड़ा किया।आडवाणी एक खुशफहमीमें जी रहे होंगे कि वरिष्ठताके ख्यालसे भाजपामें उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था।सो,2014के आमचुनावमें भाजपाकी तरफ से प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार वह स्वयंको मान रहे थे।लेकिन,मोदीने आरएसएसके सामने खुद को हिंदू हृदयसम्राट के रूप में प्रस्तुत किया तो पूरे देशके सामने खुद को विकासपुरूष घोषित किया।

गुजरातके लोगोंमें वैसे भी उद्यमशीलता कूट-कूट कर भरी है,प्रति व्यक्ति आय में वह वैसे भी अन्य प्रदेशों से आगे है,लेकिन मोदीने अपने मार्केटिंग स्किलसे यह स्थापित किया कि गुजरातके विकासकी पटकथा सिर्फ उन्होंने लिखी है,वह एक बेहतरीन’सपनों के सौदागर’ हैं।भाजपाके तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंहने भी मोदीकी अघोषित तरफदारी की।जून,2013में ही गोवामें आयोजित पार्टीके राष्ट्रीय कार्यकारिणीकी बैठक में ही नरेंद्र मोदीको 2014के लिए प्रधानमंत्री पदके लिए उम्मीदवार घोषित कर दिया जाता,लेकिन आडवाणीके रूठ जाने के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया।भाजपाकी संस्कृति और परंपराके विरुद्ध ऐसा लग रहा था कि आडवाणी विद्रोहका झंडा बुलंद करेंगे।लेकिन,सितंबर,2013 में आरएसएसके शीर्षसे उन्हें बुलावा आया,नागपुरमें उन्हें गुरूका आदेश मिला और आडवाणीजीने विद्रोहका झंडा समेटकर अपनी संदूकमें रख दिया।15 लोकसभा चुनावों में अपने दम पर सत्ता पाने में असफल रहने के बाद 16वीं लोकसभा चुनावमें भाजपा ने अपने दम पर स्पष्ट बहुमत-282संसदीय सीट-पाया।

आरएसएस पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर खुदको किंगमेकर की भूमिका में पा रहा था।उसकी निगाह में अब सिर्फ इस चुनावी कामयाबी को कान्सोलिडेट करना था।

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2017 हुए थे।भाजपाने किसीको मुख्यमंत्रीके रूपमें पेश नहीं किया था।भाजपा ने 403सीटों में 312सीटें जीतकर तीन चौथाई सीटें हासिल की।तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितिमें लग रहा था-मोदी जिसे नामित कर देंगे,वही मुख्यमंत्री होगा।पार्टीके तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य खुदको पार्टीमें पिछड़ा वर्गका चेहरा मान रहे थे और खुदको मुख्यमंत्री पद का दावेदार समझ रहे थे।मोदी की पहली पसंद मनोज कुमार सिन्हा थे।लेकिन,ऐन वक्त पर आरएसएसने अपने वीटो का इस्तेमाल किया और गोरखपुरके महंत योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए।
एक मुख्यमंत्रीके रूपमें योगी आदित्यनाथ एक ऐरोगैंट मुख्यमंत्री साबित हुए।अपने मंत्रिमंडल में वह प्रथम और अगुआ मंत्री की तरह नहीं महंत की तरह व्यवहार करते,किसी विधायककी उन्हें परवाह नहीं थी।

5अगस्त,2020को जब मोदीने अयोध्यामें श्रीराम मंदिर का शिलान्यास किया,तो योगी थोड़ा आहत हुए थे, क्योंकि रामजन्मभूमि मुक्ति अभियान और श्रीराममंदिर निर्माणके आंदोलनमें 1949से ही गोरखपुरके महंतों- दिग्विजय नाथ और अवैद्यनाथ-का अप्रतिम योगदान रहा है और योगी इस विरासतके वारिस हैं और जबकि मोदीकी वैसी कोई सक्रियता कभी रही नहीं।इस एक घटनाने योगीको मोदीसे दूर कर दिया।

योगीकी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाएं भी अब कुलांचे भर रही है।चौधरी चरण सिंह,विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बननेके पहले उत्तरप्रदेशके मुख्यमंत्री रह चुके थे,जवाहरलाल नेहरू,लालबहादुर शास्त्री,इंदिरा गांधी,राजीव गांधी,चन्द्रशेखर,अटल सीधे प्रधानमंत्री भले बने,लेकिन उन सबकी राजनैतिक जड़ें उत्तरप्रदेश में रही हैं,यहां तक कि मोदीने भी प्रधानमंत्री बनने के लिए बनारसको अपना संसदीय क्षेत्र बनाया।उत्तरप्रदेश का कोई भाजपा मुख्यमंत्री पांच वर्षका अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया,लेकिन योगी पूरा करेंगे ही,इस बातकी पर्याप्त संभावना है।सो,उन्होंने मोदीजी वाले तमाम हथकंडे अपनाए-सोशल मीडिया पर’मोदी के बाद योगी’का नारा बुलंद हुआ,मीडिया मैनेजमेंट का खेल चला,टाइम सहित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओंमें योगीके पक्षमें विज्ञापन छपे,प्रायोजित खबरें छपी।

बताया जाता है कि इंडिया टुडे के अप्रकाशित सर्वेक्षण,जिसमें मोदीकी लोकप्रियताका ग्राफ 42%की गिरावट दर्ज करते हुए 66%से घटकर 24%बताई गई है,और प्रधानमंत्री पद के लिए लोकप्रियता के दूसरे पायदान पर मोदी के बाद योगी को बताया गया,वह योगी द्वारा प्रायोजित था।इन सारी बातों से मोदीमें असुरक्षा-बोध पनपा कि भाजपाके भीतर ही उनका प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो रहा है,जिसका पर कतरा जाना आवश्यक है।

मोदीकी त्रासदी यह भी रही कि प.बंगाल विधानसभा चुनाव,2021में भाजपाको अपेक्षित सीटें नहीं मिली।दूसरी तरफ,राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना की दूसरी लहर के कुप्रबंध के लिए मोदीको जिम्मेदार और जिम्मेवार माना गया।मोदी-शाहकी जोड़ी अब उत्तरप्रदेशके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर योगीको देखना नहीं चाहती। लेकिन,खतरा यह भी है कि अगर योगीको बदला गया,तो वह चुप नहीं बैठेंगे और भाजपाके अधिकृत प्रत्याशियोंको हरवानेमें कोई कोर कसर नही छोड़ेंगे।नतीजा, उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022में तो सत्ता नहीं ही मिलेगी,2024के लोकसभा चुनावमें हारकी पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी।

आरएसएस की हालत प्रथमदृष्टया सांप-छछूंदर वाली भले दीख रही हो,वह ऐसी समस्याओं से दो-चार होता रहा है और हरबार उसने सत्ता प्रतिष्ठान और अपने संगठनात्मक भविष्यको तरजीह दी है।बलराज मधोक, केएन गोविंदाचार्य,प्रवीण तोगड़िया,लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सरीखे महान हस्तियोंकी एक लंबी सूची है,जिनको आरएसएसने उनकी जिंदगी में किनारे लगाया है।आरएसएसके लिए मोदीकी प्रासंगिकता समाप्त हो चली है,मोदी के बिना अमित शाह का कोई वजूद है नहीं।आरएसएस मोदी-शाहको हरसंभव मनाएगा कि योगीको उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव,2022के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया जाए।योगीको मनाएगा कि वह 2024में नहीं,2029में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखें।

लेकिन,अगर विकल्पहीनता की स्थिति हो गई तो हिन्दुत्व के लिए गोरखनाथपीठके सैकड़ों साल के योगदान को देखते हुए मोदी-शाह से पिंड छुड़ाकर योगी आदित्यनाथ की तरफदारी करेगा।

 

 

 

 

 

पंकज श्रीवास्तव “वरिष्ठ पत्रकार”

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