उत्तर प्रदेश दृष्टिकोण राजनीति

उत्तरप्रदेश में मंडलवाद और कमंडलवाद के तीन दशक

Written by Vaarta Desk

पिछड़ावादका यह जलवा आगे लगभग 3दशकों यानि कि 2019तक कायम रहा।इस अवधिमें 2012-17तक मुलायम सिंह यादवके बेटे अखिलेश यादव भी मुख्यमंत्री रहे,लेकिन वह पिता मुलायम सिंह यादवकी सार्वजनिक छविसे उबर नहीं पाए।इस अवधिमें उत्तर प्रदेशमें पिछड़ावादके प्रतीकपुरुष मुलायम सिंह यादवके राजनैतिक वर्चस्वको गंभीर चुनौती भाजपाके कमंडलवाद यानि कि श्रीराम जन्मभूमि विवाद और श्रीराम मंदिर निर्माण आन्दोलनसे भी मिली।लेकिन, भाजपाने मुख्यमंत्रीके तौर पर कल्याण सिंहको प्रस्तुत किया।

राष्ट्रीय स्तर पर कमंडलवादने हिन्दू मतोंके ध्रुवीकरणमें चाहे जो भूमिका निभाई हो,प्रादेशिक स्तर पर कल्याण सिंह पिछड़ावादके भाजपाई चेहरा साबित हुए।हालांकि,6दिसंबर,1992को बाबरी मस्जिद ढाहे जानेके दिन उत्तरप्रदेशके मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ही थे।वह एक तरफ,सुप्रीम कोर्टमें हलफनामा दाखिलकर कोर्टको बरगलाते रहे कि बाबरी मस्जिदकी सुरक्षाकी चाक-चौबंद व्यवस्था की गई है और दूसरी तरफ आडवाणी-जोशीके नेतृत्वमें कारसेवकोंकी मेहमाननवाजी की व्यवस्था भी करते रहे।6दिसंबर,1992को बाबरी मस्जिद ढाहे जानेके बाद अपनी सरकार बर्खास्त किए जाने पर एलान किया-रामललाके लिए वह एक नहीं सौ सरकार कुर्बान करनेके लिए तैयार हैं।लेकिन, अटलजीकी वर्चस्वके कारण कल्याण सिंह हिन्दूहृदय सम्राटके रूपमें उभर नहीं सके और वह भाजपाके पिछड़ा चेहरा होकर रह गए।

तत्कालीन इतिहासमें अटल-कल्याण द्वन्द्व इतना भयंकर था कि 1999के आम चुनावमें उन्होंने अटलजीके लिए चुनौती पेश कर दी थी-अगर,चुनाव जीतकर सांसद बनेंगे,तब न प्रधानमंत्री बनेंगे।आतंकित-आशंकित अटलजीने राष्ट्रीय स्तर पर स्टार प्रचारककी भूमिका छोड़कर अपने संसदीय क्षेत्रमें सिमटकर रह गए थे।कल्याण सिंह भाजपाका पिछड़ा चेहरा थे-इसे इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि अटलजीसे आजीज आकर उन्होंने 1999में भी भाजपासे अलग होकर अपनी राजनैतिक जमीन तलाश करनेकी कोशिश की।2009में भाजपासे अलग होकर उन्होंने बाजाब्ता समाजवादी पार्टीके सहयोगसे निर्दलीय प्रत्याशीके रूपमें एटा से संसदीय चुनाव जीता।

1989-2019के दौरमें पिछड़ावाद और मुलायम सिंह यादवको गंभीर राजनैतिक चुनौती कांशीराम और उनके बहुजनवादसे भी मिली।भारतमें ढेर सारे आंदोलन चुनावी महत्वाकांक्षासे बाहर सामाजिक आंदोलनके रूपमें खड़ा हुए।लेकिन,कांशीरामने अपना दलितवाद राजनैतिक महत्वाकांक्षाके साथ ही शुरू किया।लगभग,10-12वर्षों तक राजनैतिक ताकत बटोरते हुए 1984में पहला चुनाव कांशीरामने छत्तीसगढ़के जांजगीर-चांपा संसदीय क्षेत्रसे लड़ा।1988 में कांशीरामने तब के लिए भावी प्रधानमंत्री वीपी सिंहको इलाहाबादके उपचुनावमें चुनौती दी।यह कांशीरामकी बौद्धिक परिपक्वता और संघर्षशील जिजीविषा थी कि उत्तर प्रदेशकी प्रादेशिक राजनीतिमें 1995-2003के बीच दलित राजनीति करते हुए मायावती 3बार गठबंधन सरकारोंकी मुख्यमंत्री बनी।2007में तो उत्तरप्रदेशके विधानसभा चुनावमें बसपाको स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ और 2012तक मायावती निर्द्वंद्व मुख्यमंत्री रहीं।

1989-2019के 3दशकों के उत्तरप्रदेशके इतिहासने पिछड़ावाद(जिसके नेता मुलायम सिंह यादव रहे), बहुजनवाद(दलितवाद)(जिसकी नेता मायावती रहीं) और कट्टर हिन्दूवाद(जिसका लाभ भाजपाने उठाया) देखा।इसने पिछड़ों-दलितोंको अपनी सामाजिक, राजनैतिक ताकतका एहसास कराया,इस वर्गमें बौद्धिक,शैक्षणिक,तकनीकी,आर्थिक समृद्धि के प्रति चेतना जगाई।लेकिन,सच यह भी है कि पिछड़ावादका लाभ मुलायम सिंह यादवके परिवार और उनके नातेदारों-रिश्तेदारोंके साथ यादव जातिके लोगोंने ज्यादा उठाया,अन्य पिछड़ी जातियां समकक्ष लाभसे वंचित रहीं।दलितवादका लाभ जाटव बिरादरीने उठाया,अन्य दलित जातियां समकक्ष लाभ नहीं उठा पाईं।बिहारमें पिछड़ों-दलितोंके बीच इस राजनैतिक चेतनाको भुनाने की कोशिशमें नीतीशजीने अतिपिछड़ा और महादलित का नया वर्गीकरण किया है।लेकिन,उत्तरप्रदेशमें प्रादेशिक स्तर पर ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई है।2007-12के दौरान मायावती मुख्यमंत्री रहीं,तो यह तथ्य खुलकर सामने आया कि मायावतीने राजनीतिको व्यक्तिगत/पारिवारिक व्यवसाय बना दिया-वह चुनावके लिए पार्टी टिकट बेचती हैं।(सच यह भी है कि कमोबेश हर पार्टी यह काम करती है और अब यही वर्तमान राजनैतिक संस्कृति और संस्कारका है।)

1989-2019के 3दशकोंमें कांग्रेसका राजनैतिक स्वरूप ही बदल गया।नवभारत टाइम्सके पूर्व सम्पादक राजेन्द्र माथुर कांग्रेसको एक संगठन,एक राजनैतिक दल मानते ही नहीं थे।वह मानते थे-कांग्रेस भारतीय राजनीतिका सांस्कारिक प्रतिनिधित्व करती है।भारतीय सार्वजनिक राजनीतिके किसी गुण-अवगुण की चर्चा कीजिए,वह कांग्रेसमें पूरे वजूदमें मिलेगी।कांग्रेसमें दक्षिणपंथी भी रहे हैं,वामपंथी भी।जातिवादी- साम्प्रदायिक लोग भी रहे हैं और धर्मनिरपेक्ष भी। कांग्रेसमें धनाढ्य भी रहे हैं और नितान्त निर्धन राजनैतिक कार्यकर्ता भी।कांग्रेस संगठन ही नहीं,राष्ट्रका दुर्भाग्य रहा कि 31अक्तूबर,1984को इंदिराजीकी हत्या के हादसेसे देश उबर भी नहीं पाया था कि
मई,1991में राजीव गांधी मारे गए।

1969और 1978के दो विभाजनोंके बाद कांग्रेसमें राजनैतिक सहयोगी,साथी,कामरेड कम और व्यक्तिगत भक्त और समर्थक ही ज्यादा रह गए थे।पीवी नरसिंहराव तो फिर भी बहुत परिपक्व राजनीतिज्ञ थे, लेकिन उसके बाद कांग्रेसके भीतर राष्ट्रीय पार्टीका नेतृत्व करने योग्य परिपक्व राजनीतिज्ञका अभाव हो गया।प.बंगालमें ममता बनर्जी,महाराष्ट्रमें शरद पवार, आन्ध्रमें वाईएसआर,तेलंगानामें केसीआर आदि का राष्ट्रीय संगठनसे अलग होकर प्रादेशिक,क्षेत्रीय पार्टी बनाना इनकी सीमित भौगौलिक राजनैतिक महत्वाकांक्षा तो है ही,राष्ट्रीय नेतृत्वकी विफलता भी है।लेकिन,उत्तरप्रदेश सहित तमाम हिन्दी पट्टीमें किसी कांग्रेसीमें ऐसी क्षेत्रीय,प्रादेशिक महत्वाकांक्षा नहीं जागी।ऐसा नहीं था कि उत्तरप्रदेशकी कांग्रेसमें पिछड़ावाद और दलितवादके पोषक नहीं थे।लेकिन, वह मुलायम सिंह यादव और मायावतीका राजनैतिक प्रतिकारमें सक्षम साबित नहीं हुए।

यों तो,सोनिया ने 1998में ही कांग्रेसका नेतृत्व थाम लिया था,लेकिन राजनैतिक परिदृश्य पर उनका महत्व 2004में स्वीकार किया गया,जब आम चुनावमें उन्होंने अटल-आडवाणी-जोशी-जार्ज की परिपक्वतावाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधनको शिकस्त दी और चुनाव उपरान्त संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-यूपीए-का स्वरूप विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।2004- 14के दौरान उन्होंने भारतीय सार्वजनिक जीवनमें थिंक टैंक और वर्क फोर्सके बीच परस्पर विचार-विमर्श,खुली चर्चा,जीवन्त बहस,सार्थक संवाद और परिणामोन्मुख समन्वय की बेहतरीन मिसाल कायम की।थिंक टैंकके तौर पर नेशनल एडवाइजरी काउंसिलकी वह अध्यक्षा रहीं,और क्रियान्वयनके स्तर पर डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने।2004-09के बीच सूचनाका अधिकार, रोजगारका अधिकार,नरेगा,भोजनका अधिकार,शिक्षाका अधिकार आदि इसी बेहतरीन समन्वयके परिणाम थे।2004-14के बीच डॉ मनमोहन सिंह सरकार द्वारा किए गए बेहतरीन कार्योंका राजनैतिक लाभ प्रादेशिक स्तर पर कांग्रेस नहीं ले पाई।

1947-90तक भारतीय जनसंघ अथवा उसके नए स्वरूप भाजपाका कोई प्रभावशाली वजूद नहीं था।1983तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघके एजेंडेमें भी राम जन्मभूमि विवाद और श्रीराममंदिर निर्माण कहीं था नहीं।1983में मुजफ्फरनगरमें हुए एक कार्यक्रममें 5बार कांग्रेसी विधायक रहे दाऊदयाल खन्नाने रामजन्म भूमि मुक्ति और श्रीराममंदिर निर्माणके मुद्देको उठाया। आरएसएसको इसमें हिंदू जनमतके ध्रुवीकरणकी संभावना दिखी और उसने इस मुद्देको लपक लिया।वीपी सिंहके मंडलवादके काटके लिए लालकृष्ण आडवाणी सितंबर,1990में सोमनाथसे अयोध्या तक रामजन्म भूमिमुक्ति यात्रा पर निकल पड़े।हिन्दू मतोंके ध्रुवीकरणका परिणाम हुआ कि 1991में उत्तरप्रदेशमें कल्याण सिंहके नेतृत्वमें भाजपाकी सरकार बनी।6, दिसम्बर,1992को बाबरी मस्जिद ढाहे जाने पर कल्याण सिंहकी सरकार बर्खास्त की गई।1997- 2002के दौरमें भाजपाको एक बार फिर सत्ता मिली। स्थानीय प्रादेशिक राजनीतिमें प्रभावशाली कल्याण सिंह थे,लेकिन वह अटलजीको सुहाते नहीं थे।सो,5वर्षोंमें भाजपाने तीन मुख्यमंत्रियोंको आजमाया-कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह।कहनेका अभिप्राय यह कि उत्तरप्रदेशमें 1997-2002 तक प्रादेशिक सत्ता भाजपाके पास रही,इस दौरमें अटलजी केन्द्रमें राजग सरकारका नेतृत्व कर रहे थे,लेकिन भाजपा कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई,नतीजा-आगे 15साल तक प्रादेशिक सत्तासे भाजपाको बाहर रहना।2007और 2012के विधानसभा चुनावोंमें भाजपाको बमुश्किल 15-17%वोट मिले अर्थात् भाजपाके हार्डकोर वोटर यही 15-17%हैं।

2013में भाजपाकी राष्ट्रीय राजनीतिमें ही नहीं भारतके सार्वजनिक जीवनमें नरेंद्र मोदी धूमकेतुकी तरह उभरे।उनमें विरोधियोंको पस्त कर देनेकी गजबकी आक्रामकता रही है,समाजके हर वर्गके लिए जुमलों और वादों का पिटारा था।विज्ञान और तकनीकके सहारे झूठ गढ़ने और प्रचार-प्रसार और विस्तार करने में सक्षम तकनीकी विशेषज्ञोंकी फौज थी।मीडियाको खरीद लेनेकी पूंजी थी।रोज नया नैरेटिव गढ़ने और अपनी विफलताओंसे ध्यान भटकानेका चातुर्य था। मोदीने अपनी पार्टीमें सक्षम लोगोंको ठिकाने लगाया और सरकार चलानेको लेकर आईएएस लॉबीको तरजीह दी।

2017के विधानसभा चुनावके दौरान उनके पास बताने-समझानेको कुछ नहीं दिख रहा था,तो 8नवम्बर,2016को नोटबंदी कर डाला।2019के लोकसभा चुनाव के पहले हुए पुलवामा कांडके कारण उपजे राष्ट्रवादसे मोदीजी 2019के लोकसभा चुनावमें भी अपनी चमत्कारिक सत्ताको कायम रखनेमें,बनाए रखनेमें सफल हुए।

……लेकिन, एक पुरानी कहावत है-कुछ लोगोंको आप सब दिन और सभी लोगोंको कुछ दिन बेवकूफ बना सकते हैं,लेकिन सभी लोगोंको सब दिन बेवकूफ नहीं बना सकते.…।…तो,मोदीजी का तिलिस्म टूट रहा है और तमाम चुनौतियोंके बावजूद भारतीय लोकतंत्र और मतदाता निरंतर परिपक्व हो रहा है।उदाहरणके लिए, राष्ट्रीय राजनीतिमें मोदीजीका विकल्प नहीं दिखता,तो लोकसभा के चुनाव में वह भाजपा को वोट देता है, लेकिन प्रादेशिक चुनावमें भाजपा को धूल चटा देता है और अरविंद केजरीवालको अपना मुख्य मंत्री चुनता है।अर्थात्,अब लोकसभा और विधानसभाके चुनाव एक ही पैटर्नके नहीं अलग-अलग होते हैं।लोकसभाके चुनाव परिणाम देखकर विधानसभा चुनाव परिणामके अनुमान नहीं लगाए जा सकते और विधानसभा चुनाव परिणामके आधार पर लोकसभा चुनाव परिणामकी कल्पना नहीं की जा सकती।अर्थात्,2019के लोकसभा चुनावके दौरान अगर उत्तरप्रदेशकी 80सीटों में 63सीटें भाजपाको मिली,तो ऐसे ही परिणाम विधानसभा चुनाव,2022में होंगे,यह कल्पना कोई भी राजनैतिक कार्यकर्ता और विश्लेषक कतई नहीं कर रहा।

 

 

 

 

 

पंकज श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार “रांची” झारखण्ड 

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