दृष्टिकोण

31अक्तूबर : सरदार वल्लभ भाई पटेल जयंती

Written by Vaarta Desk

किसान आन्दोलनकी चर्चाओं के बीच 93साल पुराने किसान आन्दोलन-बारदोली सत्याग्रह-के इतिहास का पुनर्पाठ समीचीन दिखता है,जिसका नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल ने महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में किया था और जो शोषक और शोषितों का साझा संघर्ष था।

बारदोली सत्याग्रह:

शोषक और शोषित का साझा संघर्ष

बीसवीं शताब्दीके पहले दशक(सन्1908के आसपास) में सूरत जिला(वर्तमान गुजरात और तब का बॉम्बे प्रेसीडेंसी)के बारदोली इलाकेके 137गांवोंकी आबादी 87000 थी।बारदोलीमें किसानोंमें प्रभावशाली जाति ‘कुनबी-पाटीदार’थी।लेकिन,पाटीदार किसानोंकी ज़मीन ‘दुबला आदिवासी’जोता करते थे,जिन्हें’कालिपराज’ भी कहा जाता था।कालिपराज जनजातिको’हाली पद्धति’के तहत उच्च जातियोंके यहाँ पुश्तैनी मज़दूरके रूपमें कार्य करना होता था।’हाली पद्धति’एक प्रकार की”बन्धुआ मजदूरी”थी,जिसे कापिलराज जनजातिके लोग करनेको विवश थे।उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी।इनकी आबादी बारदोली तालुकामें 60% थी।

1908ई.से ही भ्राताद्वय-कुंवरजी एवं कल्याणजी मेहता एवं दयालजी देशाई,केशवजी जैसे उनके साथी कालिपराज समुदायके लोगोंको संगठित करने और इनमें चेतना जगानेका प्रयास करने लगे।इन लोगोंने ‘पाटीदार युवक मंडल’एवं’पटेल बन्धु’नामक पत्रिकाओंका प्रकाशन भी किया।”कालिपराज साहित्य” का सृजन किया और हाली पद्धतिके खिलाफ आवाज उठायी।
गांधीजीकी सलाह पर बारदोलीके कार्यकर्ताओंने कालिपराजोंके बीच रचनात्मक गतिविधियां शुरू की। 1922के बाद हर वर्ष कालिपराज सम्मेलनका आयोजन होने लगा।1927के सम्मेलनकी अध्यक्षता स्वयं गांधीजीने की तथा कालिपराजोंको रानीपराज (बनवासी)की उपाधि दी।
लगभग दो दशक तक सकारात्मक रचनात्मक प्रयासों का ही परिणाम था कि बारदोली सत्याग्रहमें केवल ‘कुनबी-पाटीदार’जातियोंके भू-स्वामी किसानोंने ही नहीं,बल्कि कालिपराज(काले लोग)जनजातिके लोगोंने भी हिस्सा लिया।

बारदोली सत्याग्रहका नेतृत्व के लिए किसानों की पहली पसंद महात्मा गांधी थे!

1921में,गुजरातमें दुर्भिक्षके कारण किसानोंकी स्थिति भयावह हो गई थी।खेत सूखे पड़े थे और उत्पादन 20% भी मुश्किलसे हो पाया था।किसानोंकी स्थिति इतनी गंभीर थी कि उनके पास कर चुकानेके लिए बमुश्किल पर्याप्त संपत्ति और फसलें थीं, बाद में खुद का पेट भरने की बात तो दूर।3वर्ष पहले 1918में ही खेड़ामें सत्याग्रह हुआ था,उससे किसानोंको कुछ हिम्मत मिली थी।
बारदोलीके’मेहता बन्धुओं'(कल्याणजी-कुंवरजी) तथा दयालजीने किसानोंके समर्थनमें 1922ई.से आन्दोलन चलाया।वहाँके कई किसान अफ्रीका भी गए थे,जहाँसे पूँजी लेकर लौटे थे।उनकी काश्तकारीकी भी मिसाल दी जाती थी।

1925में,बारडोलीमें सरकार वित्तीय संकटका सामना करना पड़ा।अंग्रेजोंके अधिकारी उत्पादनके आँकड़ोंमें हेराफेरी करते रहते थे।आखिर उन्हें ज्यादा लगानकी वसूली दिखाकर अपने आकाओंको खुश करना होता था!

एक प्रांतीय सिविल सेवा अधिकारीकी सिफारिश पर वर्ष 1926ई.में सरकारने लगानकी दर 30% बढ़ा दी।उसका तर्क था कि ताप्ती नदी घाटीमें रेलवे लाइनकी स्थापनाके बाद क्षेत्रके किसान अधिक समृद्धिका आनंद ले रहे थे।लेकिन,सच यह था कि किसानोंकी स्थिति इतनी गंभीर थी कि उनके पासखुद का पेट भरनेकी बात तो दूर कर चुकानेके लिए बमुश्किल पर्याप्त संपत्ति और फसलें थीं।ऐसे में,अंग्रेजों द्वारा अचानकसे लगान में इतनी ज्यादा वृद्धि किए जाने से उन्हें धक्का लगा।

किसानोंने इसका जबरदस्त विरोध किया,जिसे कांग्रेस का भी समर्थन प्राप्त था।लगान कम कराने हेतु 1927ई.में भीमभाई नाइक तथा शिवदासानीके नेतृत्वमें एक प्रतिनिधि मण्डल बम्बईके राजस्व विभागके प्रमुख से मिलने भेजा।इस मण्डलके प्रयासोंसे सरकारने जुलाई,1927ई.में लगान वृद्धिको 30%से घटाकर 22% कर दिया।

लेकिन,बारदोलीके किसान इतने से संतुष्ट न थे।वह लगानमें और छूट चाहते थे।बड़े किसान आन्दोलनके लिए परिपक्व नेतृत्वकी जरूरत थी।नेतृत्वके लिए किसानोंकी पहली पसंद महात्मा गांधी थे।लेकिन, समस्या थी कि वो पूरे देशके सफरमें लगे रहते थे और कांग्रेसके कार्योंमें भी अतिव्यस्त रहते थे।इसलिए, महात्मा गाँधीको आंदोलनका नेता नहीं बनाया जा सकता था।

ऐसे में,वल्लभभाई पटेल स्वाभाविक विकल्प दिखे, जिन्हें महात्मा गाँधीके साथ काम करनेका अच्छा अनुभव था।वह एक सफल अधिवक्ता थे,और हाल ही में,अहमदाबाद नगरपालिका अध्यक्षके रूपमें कार्य किया था।वह खेड़ा सत्याग्रह,नागपुर फ्लैग मार्च सत्याग्रह और बलसाड़ सत्याग्रहमें अपनी भूमिकाके कारण खासे लोकप्रिय हो चले थे।पूरे राज्यमें उनका बहुत सम्मान था। वल्लभभाई पटेलके पक्षमें यह बात भी जाती थी कि सन् 1923में वह पहली बार बारडोली आए थे और यहां लगभग 22बीघा जमीन खरीदी थी,यानि कि व्यावहारिकताके स्तर पर वह स्थानीय भी थे।
हालांकि,सत्याग्रहके दौरान सरकारी प्रयासोंमें पटेल पर ‘बाहरी व्यक्ति’होने का आरोप लगाया गया।उन्होंने अंग्रेजोंसे पूछा कि इस देशका खून चूसनेवाली सत्तामें कहाँके लोग भरे पड़े हैं?सरकारके सहयोगके लिए बुलाए गए मुस्लिम-पठान कौन से स्थानीय हैं?

गुजराती कार्यकर्ता नरहरि पारिख,रविशंकर व्यास और मोहनलाल पांड्याने गांवके सरदारों और किसानोंसे बात की और किसानोंका जत्था सीधा अहमदाबाद पहुँचकर वल्लभभाई पटेलको आन्दोलनका नेतृत्वके लिए आमंत्रित किया।

पटेल ने ठोक-बजाकर नेतृत्व स्वीकार किया……

वल्लभभाई पटेलको महात्मा गाँधीके साथ काम करने का अच्छा अनुभव था।वह एक सफल अधिवक्ता थे, और हाल ही में,अहमदाबाद नगरपालिका अध्यक्षके रूपमें कार्य कर चुके थे।वह खेड़ा सत्याग्रह,नागपुर फ्लैगमार्च सत्याग्रह और बलसाड़ सत्याग्रहमें अपनी भूमिकाके कारण खासे लोकप्रिय हो चले थे।पूरे राज्य में उनका बहुत सम्मान था।सरदार पटेल हवा-हवाई नेता नहीं थे।उन्हें आशंका थी कि लोगोंका उत्साह कभी भी ठंडा पड़ सकता है।

पटेलने किसानोंके प्रतिनिधिमंडलको हड़काया,अपने तेवर तल्ख किए कि वह उनका नेतृत्व तब तक नहीं करेंगे,जबतक कि उसमें शामिल सभी गांवोंकी समझ और सहमति न हो।उन्हें ठीकसे समझ लेना चाहिए कि सत्याग्रहका क्या मतलब होगा।सत्याग्रह खिलवाड़ नहीं है,गंभीर पहल है।सत्याग्रहमें चक्की पीसनी पड़ सकती है।जाति-धर्म और आचार-विचारके बंधन तोड़ने होंगे।पाखाना सफाई तक करनी पड़ सकती है। सभी को मर-मिटनेके लिए तैयार रहना चाहिए।करोंका भुगतान करनेसे इनकार करनेपर उनकी संपत्ति जब्त की जा सकती है,जिसमें उनकी जमीन भी शामिल है,और कई लोग जेल जाएंगे।सरकार उनके पूर्ण विनाशकी कोशिश करेगी।

ग्रामीणोंने जवाब दिया कि वे सबसे बुरेके लिए तैयार थे लेकिन निश्चित रूपसे सरकारके अन्यायको स्वीकार नहीं कर सकते।सभी किसानोंने कहा कि वो सत्याग्रह के नियमोंका पालन करते हुए जान तक देनेके लिए भी तैयार हैं। किसान बारदोली लौटे और एक सूची के साथ आए, जिसमें मर-मिटने का वादा करने वालों का नाम था।

एक तरफ पटेलने किसानोंको सत्याग्रहका महत्व समझाकर उन्हें देश की आज़ादीकी बड़ी लड़ाईके लिए तैयार किया,वहीं दूसरी तरफ जिस तरहसे किसान पूरे विचार-विमर्शके बाद सूची लेकर आए कि किस घरसे किसे मर-मिटने के लिए भेजा जा सकता है–उनकी अपने नेता वल्लभभाईके प्रति श्रद्धाको दिखाता है।
पटेलने उन्हें अनुशासन भी सिखाया और हक़की लड़ाईमें उनका नेता बनना भी स्वीकार किया।

पटेलने तब गांधीसे इस मामले पर विचार करनेको कहा,लेकिन गांधीने केवल वही पूछा जो पटेलने सोचा था।जब पटेलने संभावनाओंके बारेमें विश्वासके साथ उत्तर दिया, तो उन्होंने अपना आशीर्वाद दिया।
गांधी और पटेल दोनों इस बात पर सहमत थे कि न तो कांग्रेस और न ही गांधी सीधे तौर पर खुदको शामिल करेंगे,और संघर्ष पूरी तरहसे बारडोली तालुका के किसानों पर छोड़ दिया जाए।

इसके बाद किसानोंका जत्था साबरमती आश्रम पहुँचा।महात्मा गाँधीने उन्हें सफलताकी शुभकामनाएँ दी।
……और,तैयारियाँ शुरू हो गई।

……और,वह ऐतिहासिक 4फरवरी,1928

सरदार पटेलने आंदोलन शरू होनेसे पहले शांतिपूर्ण समाधानके लिए बम्बईके गवर्नरको पत्र लिखकर इस लगान व्यवस्थाको दोषपूर्ण,हानिकारक और आपत्तिजनक बताया था।लेकिन राज्यपालने पत्रको नज़रअंदाज कर दिया,और वसूलीकी तारीखकी घोषणा करके पलटवार किया।जब कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला तभी उन्होंने आंदोलन में कदम रखा।

4फरवरी,1928को(किसानोंको लगानकी पहली किश्त की निर्धारित तारीखसे एक दिन पहले)पटेलने बारडोलीमें एक किसानों की कांफ्रेंस आयोजित की.
उन्होंने बारदोली की जनता से कह दिया कि अगर वो पीछे हटे तो पूरे देश की नाक नीची हो जाएगी, वहीं वो जीते तो संसार भरमें देशका मस्तक ऊँचा हो जाएगा।पटेलने तब बारडोली तालुकाके सभी किसानों को लगानके भुगतानसे इनकार करनेका निर्देश दिया।
पटेलने किसानोंको पूरी तरहसे अहिंसक रहने और अधिकारियोंके किसी भी उकसावे या आक्रामक कार्रवाईका शारीरिक रूपसे जवाब नहीं देनेका निर्देश दिया।

किसानोंने उन्हें आश्वस्त किया कि संघर्ष तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि लगानको रद्द नहीं कर दिया जाता और सभी जब्त संपत्ति और भूमि उनके सही मालिकों को वापस नहीं कर दी जाती।किसानोंने अत्याचारी अंग्रेजोंके सामूहिक प्रतिकारका निर्णय लेते हुए ऐलान किया कि वो लगान नहीं देंगे।

गाँधीजीने भी महादेव देसाईको अपना प्रतिनिधि बना कर वहाँ भेजा।बारदोली तहसीलके एक-एक स्त्री-पुरुष, बच्चे वहाँ पहुँचे।सभी पटेलको देखना चाहते थे।हजारों लोगोंने कुछ इस तरहसे अंग्रेजोंके खिलाफ सत्याग्रहका ऐलान किया,जैसे उन्हें मृत्युका भय ही न हो।लोग ऐसे चले,जैसे ख़ुशीसे बरात जा रहे हों।उन्होंने लगान न भरने और अंग्रेजोंका अहिंसक प्रतिकार करनेका निर्णय ले लिया था।

इन निर्णयोंकी पुष्टिकेके बाद,किसानों ने कुरान,रामायण के अंशों का पाठ किया और अन्य हिंदू भजन गाए.प्रभु और खुदाके नाम पर लोगों द्वारा शपथ ली गई. सत्याग्रहकी शुरुआत रहस्यवादी कबीरके रहस्यवादी गीतों से हुई.पटेलने बॉम्बे गवर्नरसे एक बार फिर इस निर्णय पर विचार करनेको कहा,लेकिन कोई रिस्पांस नहीं मिला.सौराष्ट्रके लोकप्रिय कवि फूलचंद दास भी अपनी भजनमंडलीके साथ आए और उन्होंने जन-जागरणमें पूरा साथ दिया।

सरकार का दमनकारी रवैया

8नवंबर,1927को इंग्लैंडमें साइमन कमीशन का गठन हुआ था।इसे यह जिम्मेवारी दी गई थी कि वह मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड द्वारा दिए गए सुझावोंके आलोकमें भारतमें सांवैधानिक सुधारोंकी संभावनाकी तलाश करे।भारतमें साइमन कमीशनका राष्ट्रव्यापी विरोध हुआ था।अभी यह कमीशन भारतमें ही था,बारडोलीमें सत्याग्रह शुरू हो गया।

सरकारने घोषणा की कि वह विद्रोहको कुचल देगी। कर निरीक्षकोंके साथ,ग्रामीणोंकी संपत्तिको जब्त करने और आतंकित करनेके लिए उत्तर-पश्चिम भारतसे पठानोंके बैंड इकट्ठा किए गए थे। पठानों और संग्राहकों के आदमियों ने जबरन घरों में घुसकर मवेशियों समेत सारी संपत्ति अपने कब्जे में ले ली।

ब्रिटिश सरकारने स्थानीय किसानो ही नहीं अड़ोस- पड़ोसके गांवके लोगोंको पुलिस द्वारा धमकाना शुरू किया।सरकारने सूचना जारी की,जो भी किसान इस टैक्सको जमा करनेसे इनकार करेंगे उनके जमीनोंको सरकार द्वारा नीलाम किया जायेगा,साथ ही उनकी अन्य संपत्ति-जानवर आदिको जब्त किया जायेगा।

वल्लभभाई पटेल का सरदाराना नेतृत्व

पटेलने सत्याग्रहियोंको सैन्य तर्ज पर संगठित किया और व्यक्तिगत रूपसे एक सेनापति(कमांडर)की भूमिका निभाई।पटेलने अपने अद्भुत संगठनात्मक क्षमता और उत्साहका परिचय दिया।पारिख,व्यास और पांड्याकी सहायता से,वल्लभभाई पटेलने बारडोलीको कई क्षेत्रोंमें विभाजित किया,जिनमें से प्रत्येकमें एक नेता और विशेष रूपसे स्वयंसेवकोंको नियुक्त किया, सरकारी गतिविधियों पर नजर रखनेके लिए कुछ कार्यकर्ताओंको सरकारके करीब भी रखा।

उन्होंने एक प्रचार विभागकी स्थापना की,जिसने लोगों के बीच सूचना पहुँचाई।इन सबकी पूरी डिटेल एक ‘सत्याग्रह-विवरण’नाम की पत्रिकामें प्रकाशित होता था।मात्र 1घंटेमें इसकी 10,000 प्रतियाँ समाप्त हो जाती थीं।ऊपरसे पटेलके भाषण ऐसे होते थे,जिन्हें सुनकर लोगोंको हिम्मत मिलती थी।अंग्रेजों ने किसानों से अपनी जेलें भर दीं।

गुजरातके समाचारपत्रोंमें सत्याग्रहकी खबरें छपने लगीं और पूरे देशमें भी लोगोंकी नजरें इस पर आ टिकीं। अलग-अलग क्षेत्रोंके किसान जो परेशान थे,आशा भरी निगाहोंसे इस आंदोलनकी सफलताकी कामना करने लगे,क्योंकि इससे उन्हें भी उत्साह मिलता था।

समाचार पत्रों और मजदूर नेताओं द्वारा भी सरकारसे अनुरोध किया गया कि किसानों पर बढे लगानके बोझको कम किया जाये.सभी प्रदेशोंके किसान संगठनने सरकारको चेतावनी दी कि यदि बढा हुआ लगान वापस नहीं हुआ तो वो भी अपने प्रदेशमें लगानबंदी आन्दोलन चलायेंगे।

12फरवरीको बारडोली तालुकाके एक सम्मेलनमें बढ़े लगानका भुगतान न करनेके निर्णयको दोहराया और इसके बजाय मांग की कि या तो सरकार पूर्ण भुगतानके रूपमें पिछली राशिको स्वीकार करे या नए लगाने निर्धारणके लिए एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण नियुक्त करे।
बढ़े हुए लगानकी पहली किश्तका भुगतान करनेकी अंतिम तिथि 15फरवरी थी,जिसके बाद स्थानीय अधिकारियोंको किसानोंकी जमीन और मवेशियोंको जब्त करनेका सरकारी आदेश दिया गया था।

15फरवरीसे अंग्रेज किसानोंसे अपनी जेल भरने लगे।
घर तो दूर की बात,उनके खेत और जानवर भी जब्त किए जाने लगे।कई किसानोंकी पिटाई हुई।महिलाओंको भी प्रताड़ित किया गया।किसानोंको उनके हमवतनोंका पूरा समर्थन मिला।कई लोगोंने अपनी कीमती सामानों को अन्य हिस्सोंमें रिश्तेदारोंके यहां छिपा दिया। प्रदर्शनकारियोंको अन्य हिस्सोंमें समर्थकोंसे वित्तीय सहायता और अन्य आवश्यकताओंकी आपूर्ति हुई। हालांकि,पटेलने गुजरात और भारतके अन्य हिस्सोंमें उत्साही समर्थकोंको सहानुभूतिपूर्ण विरोधमें जाने से मना कर दिया था।

सुनियोजित जनविरोधके तहत बारडोली स्टेशन उतरने पर अधिकारियोंको बैलगाड़ी या यात्राका कोई अन्य साधन नहीं मिला।सरकारने घरों और जमीनोंकी नीलामी शुरू की,लेकिन गुजरात या भारतमें कहीं से भी कोई खरीददार आगे नहीं आया।पटेलने निगरानीके लिए हर गांवमें स्वयंसेवक नियुक्त कर रखे थे।जैसे ही,उन्होंने संपत्तिकी नीलामी करने आ रहे अधिकारियों को देखा,अपना बिगुल बजा देते थे।किसान गांव छोड़कर जंगलोंमें छिप जाते थे।अधिकारीको पूरा गांव खाली मिलता था।वे पता नहीं लगा सके कि किस घर का मालिक कौन है।

बंबईसे कुछ अमीर लोग कुछ जमीन खरीदने आए थे।एक गांवकी भी पहचान हुई,जिसने लगानका भुगतान किया था।उनके खिलाफ पूर्ण सामाजिक बहिष्कारका आयोजन हुआ,रिश्तेदारोंने भी गांवके परिवारोंसे संबंध तोड़ लिए।अन्य तरीकोंसे भी सामाजिक बहिष्कारको लागू किया गया।

सरकारी स्तरसे किसीका घर सील किया गया,किसीको नजरबंद किया गया,किसीको जेलमें डाल दिया गया। महात्मा गांधीके पुत्र रामदास गाँधी,जो वल्लभभाई पटेलके स्वराज आश्रमके व्यवस्थापक थे,को भी मार-मार कर जेल भेज दिया गया।गुजरातमें‘महाराज’ के नामसे प्रसिद्ध कर्मयोगी रविशंकरकी गिरफ्तारी हुई।महात्मा गाँधीने कहा कि इस आंदोलनकी शुरुआतमें ही उनके जैसे‘श्रेष्ठ ब्राह्मण’को गिरफ्तार किया गया है,सफलता जरूर मिलेगी।पटेलने सत्ताकी तुलना मदोन्मत हाथीसे करते हुए कहा कि मच्छर जब उसके कानमें घुसता है,तो वो सूँड पटककर लोटने लगता है।

इस अत्याचारके विरोधमें विठ्ठलभाई पटेल,जो वल्लभ भाई पटेलके बड़े भाई थे,ने सरकारको चेतावनी दी कि,यदि अत्याचार बंद नही हुए तो वे केन्द्रीय असेम्बलीके अध्यक्ष पदसे त्यागपत्र दे देंगे।अन्य राष्ट्रीय नेताओंके संदेश भी आने लगे।बंबई और पूरे भारतकी विधान परिषदोंके सदस्य आन्दोलनकारी किसानोंके प्रति भयानक व्यवहारसे क्षुब्ध थे।भारतीय सदस्योंने अपने कार्यालयोंसे इस्तीफा दे दिया और किसानोंका खुला समर्थन व्यक्त किया।सरकारकी भारी आलोचना हुई,यहां तक ​​कि सरकारी कार्यालयोंमें भी लोगोंने सरकारकी आलोचना की।यहां तक कि ब्रिटिश-स्वामित्व वाले प्रकाशन भी किसानोंके बौद्धिक समर्थनमें सामने आ गए।

अंग्रेजोंको कोई रास्ता न सूझा,तो बंबईके गवर्नरका आदेश आया कि वल्लभभाई पटेलको गिरफ्तार किया जाए।गाँधीजीको जैसे ही इसकी सूचना मिली,उन्होंने तार भेजा कि जरूरत हो,तो वह आने को तैयार हैं। पटेलने उन्हें जवाब भेजा कि आप आ सकते हैं। गाँधीजी बारदोली पहुँच गए और अंग्रेजोंकी मुश्किलें और बढ़ गईं।

जून,1928के आते-आते,सरकारको सत्याग्रहियोंका दबाव महसूस शुरू हो गया था.अंग्रेजोंको लगने लगा कि अब और सत्याग्रहियोंको जेलमें डालनेसे ये और भी उग्र हो जाएगा।उन्होंने पटेलको वार्ताके लिए बुलाया। किसानोंके प्रतिनिधिमंडलसे बातचीत की गई।

तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन का हस्तक्षेप

तत्कालीन वाईसराय लॉर्ड इरविनने पुरे मामलेके लिए जांच कमिटी बनानेके आदेश दिए।एक न्यायिक अधिकारी बूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेलने संपूर्ण मामलों की जांचकर लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया।हालांकि,किसानोंकी कुछ बुनियादी समस्याओंको अनसुलझा छोड़ दिया गया और बंधुआ मजदूरी जारी रही।फिर भी,लगान-वृद्धिको सम्यक स्तर पर रखा जाना भी किसानों की बड़ी जीत थी।सरकारने इस सत्याग्रह आंदोलनको कुचलनेके लिए कठोर कदम उठाए,पर अंतत: विवश होकर उसे किसानोंकी मांगोंको मानना पड़ा।

किसानों की जीत

किसानोंने अपनी जीत का जश्न अवश्य मनाया,लेकिन पटेलने यह सुनिश्चित करनेके लिए काम करना जारी रखा कि सभी जमीन और संपत्ति हर किसानको वापस की जाए और कोई छूटे नहीं।कुछ लोगोंने, जिन्होंने कुछ जमीनें खरीदी थीं,उन्हें वापस करनेसे इनकार किया,तो बॉम्बेके धनी समर्थकोंने उन्हें खरीद लिया और जमीनोंको सही मालिकोंको वापस किया।

12जून,1928को बारदोली सत्याग्रहके सर्मथनमें गाँधीजीकी अपील पर पूरे देशमें बारदोली दिवस मनाया गया.जगह-जगह सभाएं हुईं और बारदोलीकी घटनाका जिक्र पूरे देशमें फैल गया.बारडोलीकी महिलाओंने वल्लभभाई पटेलको सरदार की उपाधि दी।गांधीजीने कहा कि बारडोली में सरदारने अपना वल्लभ (भगवान) पाया, तो सत्याग्रह की सफलता का श्रेय पटेलने गांधी की शिक्षाओं और किसानों के अटल संकल्पको दिया, वहीं देशभरके लोगोंमें उनके महत्वपूर्ण नेतृत्वको मान्यता मिली। सरदार पटेल स्वतंत्रता सेनानियों की अग्रिम पंक्ति के नेता के रूपमें सर्व-स्वीकार्य हुए।

राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राममें बारदोली सत्याग्रहके महत्वके संदर्भमें गांधीजीने कहा कि बारदोली संघर्ष चाहे जो कुछ भी हो,राजस्व प्राप्तिका संघर्ष नहीं है।इस तरहका हर संघर्ष,हर कोशिश हमें स्वराजके करीब पहुंचा रही है और सीधे स्वराजके लिए संघर्षसे कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

बारडोली सत्याग्रहने स्वतंत्रता संग्रामको एक नई दिशा और परिपक्वता दी।19दिसंबर,1929को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसने पूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित किया।26जनवरी,1930को रावी नदीके तट पर लाहौरमें जवाहरलाल नेहरूकी अध्यक्षतामें हुए कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य प्राप्त होने तक जनसंघर्ष जारी रखने का लोक संकल्प लिया गया।12मार्च,1930को साबरमती आश्रमसे गांधीजीके नेतृत्वमें दाण्डी यात्रा शुरू हुई,जो 6अप्रैल,1930को दाण्डीमें नमक सत्याग्रह के रूपमें पूर्ण हुई।

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